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________________ विचिव्रता के कारण कारण की शोथ संसार की एवं अणोरपारे संसारे सायरम्मि भीमंमि । पत्तो अणंतखुत्तो जीवहिं अपत्त धम्मेहिं।। बड़ी मुश्किल से भी जिसका पार न पा सकें ऐसे भयंकर संसार रूपी समुद्र में धर्म को न प्राप्त किया हआ जीव अनन्त की गहराई में गिरा है। यह संसार एक भयंकर महासागर के जैसा है। जिसमें सतत सुख-दुःख की लहरें चलती है। जो ज्वार-भाटे के रूप में आती हे जाती है। थोड़ी देर सुख तो थोड़ी देर दुःख इस तरह यह संसार सुख-दुःख से भरा पड़ा है। संसार की तरफ जब दृष्टिपात करते हैं, तब अनन्त जीवों का स्वरूपं सामने दिखाई देता है। संसार क्या है ? संसार किसी वस्तु का नाम नहीं है। किसी पदार्थ विशेष को भी संसार नहीं कहते हैं । परन्तु जड़-चेतन का यह संसार है। चेतन जीव का जड़ के साथ जो संयोग-वियोग है वही संसार है। जीवों का सुखी-दुःखी होना ही संसार है। शुभा -शुभ कर्म उपार्जन करना और उसके विपाक स्वरूप सुख-दुःख भोगना ही संसार है। जन्म-मरण का सतत चक्र चलता रहे उसे संसार कहते हैं। अनादि - अनन्त संसार :... यह संसार काल की दृष्टि से अनादि-अनन्त है। जिसकी आदि कभी भी नहीं होती है. अतः संसार भी अनादि है। चूंकि संसार का आधार ही जड़-चेतन दो पदार्थ है। और उनका भी संयोग-वियोग ही संसार है। आत्मा यह अनुत्पन्न द्रव्य है जो कि कभी उत्पन्न नहीं होता है। जो कभी बनाया नहीं जाता है। निर्माण नहीं होता। अतः उसका नाश भी नहीं होता। जो उत्पन्न होता है उसी का नाश होता है। जिसका नाश होता है वह उत्पन्न द्रव्य है। अतः इसी पर आधारित संसार भी अनादि काल से विद्यमान है। चूंकि आत्मा-अनादि-अनन्त है। आत्मा की भी आदि नहीं है अतः संसार की भी आदि नहीं है। उसी तरह मोक्ष में अनंत आत्माओं के जाने के बावजूद भी अनंतानंत आत्माएं इस संसार में सदा ही रहती है। संसार से सभी आत्माएं मोक्ष में नहीं चली गई है अतः संसार का अन्त नहीं आया है। और अ-भवी जीव जो कदापि मोक्ष में जाने वाले ही नहीं है, अतः संसार का कभी भी अन्त आना संभव ही नहीं है । संसरणशील स्वभाव वाला संसार अनंतकाल तक सदा चलता ही रहेगा। कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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