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चारों गति में संसारस्थ संसारी जीवों का निवास है। मनुष्य गति में मनुष्य स्त्री-पुरुष रहते हैं। मनुष्य गति में जन्म होता है। जीव बाल्यावस्था में होता है। आत्मा जो अक्षय स्थिति स्वभाव वाली है उसकी आय नहीं होती। लेकिन आत्मा जब देह धारण करती है तो वह देह कहां तक ? कितने काल तक टिकाये रखना है ? सम्भाले रखना है ? वह काल अवधि आयुष्य है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की काल अवधि आयुष्य काल है। उतना ही समय जीव को जन्म में रहना है। उसके बाद उसे भव पूरा करके,देह छोड़कर दूसरे भव में जाना पड़ता है। मनुष्य जन्म यद्यपि दुर्लभ है फिर भी आत्मा यदि तथाप्रकार की साधना करे तो मनुष्य जन्म दूसरी बार भी मिल सकता है। तीसरी बार भी मिलता है। इस तरह ‘सत्त - अट्ट भवों का पाठ हैं। सात से आठ भव मनुष्य गति में जीव लगातार कर सकता है। लेकिन यह कब सम्भव है ? कितनी ऊंची पुण्याई के बाद सम्भव है ? भगवान महावीर ने अपने २७ भवों की भव परम्परा में २ बार मनुष्य भव लगातार साथ में किए हैं। एक बार तो ५ वां तथा छट्ठा एक के ऊपर दूसरा दोनों भव मनुष्य गति में लगातार किये हैं। उसी तरह २२ वां तथा २३ वा पुनः मनुष्य गति में लगातार मनुष्य बने थे। भगवान पार्श्वनाथ ने १० भवों की भव परम्परा में एक बार भी मनुष्य गति के दो-दो भवं एक साथ नहीं किये हैं। यह तो संभावना की दृष्टि से ऊंची संख्या में बताई हैं। परंतु प्राप्त करना यह जीव के खुद के पुण्य बल पर आधारित है। सात-आठ भवों की बात दूर रही परन्तु ८४ लाख जीव योनियों के संसार चक्र में भटकते हुए जीव को एक बार भी मनुष्य गति में जन्म प्राप्त करना भी बड़ा कठिन है। फिर दूसरी तीसरी बार की बात ही कहां रही ? अच्छा एक बार के लिए भी मनुष्य गति में जीव आ तो गया, लेकिन मृगापुत्र के जैसा जन्म मिला तो क्या फायदा? मृगापुत्र का जन्म गति की दृष्टि से जरूर मनुष्य गति में गिना जाएगा लेकिन वह भव संख्या की गिनती में सिर्फ गिना जाएगा। इससे ज्यादा आगे उसे लाभ क्या ? भव मनुष्य गति का लेकिन जीवन सारा मानों नरक गति का दुःख भोगता हो, ऐसा लगता है। उसी तरह आज हम आंखों के सामने देखते हैं कि कहलाते तो है मनुष्य परंतु घोड़े-गधे-बैल की तरह बैलगाड़ी खिंचते हुए माल ढो रहे हैं। जीवन मनुष्य का और कार्य पश का। सोचिए! ऐसे जीवों को मनुष्य गति मिली भी सही तो भी क्या फायदा हुआ? कोई जीव माता के गर्भ में आकर ही चला जाता है । मृत्यु पाता है। कोई जन्म के पहले ही मृत्यु पाता है, तो कोई जन्म के बाद, तो कोई बड़े होने के बाद, तो कईयों को गर्भ में मा ही मरवा डालती है। आज गर्भपात का पाप भयंकर बढ़ता जा रहा है। जगह-जगह पर पंचेन्द्रिय मनुष्यों कि कतल के ये उजले कत्तलखाने चल रहे हैं। सुधरे हुए सभ्य समाज का यह कलंक है महा पाप है। क्या गर्भस्थ शिशु बालक नहीं है ? क्या वह जीव नहीं है ? बेचारा ८४
कर्म की गति नयारी
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