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गणधरवाद में पाँचवे गणधर सुधर्मास्वामी को अपने पूर्व काल में जन्मजन्मान्तर साद्दश्य की धारणा थी। यह उनका पक्ष था। वे वेद वाक्य का अर्थ ऐसा करते थे कि- “पुरूषो मृतः सन् पुरुषत्वमेवाश्रुते, पशवः पशुत्वम्' अर्थात पुरुष मृत्यु पा कर परभव में पुरुष ही बनता है। पशु मृत्यु पा कर पशु ही होता है। कारण सदृश्स कार्य को मानने की विचारधारा वाला वह अग्निवेश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण सुधर्मा था। लेकिन सामने दूसरा वेदवाक्य ऐसा आया कि- 'श्रृगालो वै एष जायते यः पुरीषो दह्यते।' जिसको मल सहित जलाया जाता है वह मृत्यु पा कर श्रृगाल रूप में जन्म लेता है। इस तरह परस्पर विरोधी वाक्यों के आने से विरोधाभास खड़ा हुआ है। परंतु ऐसा नहीं है। कारण सदृश भी कार्य सदृश होता है और कारण से कार्य विचित्र भी होता है। कारण रूप में जीव के कर्म है अतः कर्मानुसार कार्य होगा। जन्मानुसार जन्म नहीं अपितु कर्मानुसार जन्म होता है। अतः भवान्तर सादृश्य का पक्ष युक्तिसंगत नहीं ठहरता, यह चर्चा सुदीर्घ है। गणधरवाद में से विशेष जानकारी प्राप्त करना उचित रहेगा।
२४ तीर्थंकरों की भव भ्रमण संख्या भिन्न-भिन्न है । जीव ने सम्यक्त्व प्राप्त किया तब से भव संख्या की गिनती करते हैं और निर्वाण प्राप्त करके मोक्षं में जाते हैं उस चरम भव तक संख्या गिनी जाती है। सम्यक्त्व नहीं पाये उसके पहले की भव संख्या गिनने जायें तो वह अनंत की संख्या गिनने जाएं? इसलिए सम्यक्त्व प्राप्ति के भव से निर्वाण प्राप्ति के चरम भव तक की संख्या गिनी है। २४ तिर्थंकरों में यह भव संख्या भिन्न भिन्न है।
भगवान ऋषभदेव के १३ भव हुए हैं। भगवान शांतीनाथ के १२ भव हुए हैं। भगवान नेमिनाथ के ९भव हुए हैं। भगवान पार्श्वनाथ के १० भव हुए हैं। भगवान महावीर स्वामी के २७ भव हुए हैं।
अधिकांश तीर्थंकरों के तीन-तीन भव हुए हैं। परंतु इन भव संख्याओं में गति परिभ्रमण देखा जाएं तो सभी का भिन्न भिन्न है । भगवान ऋषभदेव ने १३ भवों में सिर्फ २ गति में परिभ्रमण किया है। वे मनुष्य से देव और देव से पुनः मनुष्य इस तरह दो ही गति में रहे। १३ जन्मो में तीसरी किसी गति में नहीं गये। भगवान नेमिनाथ के भी ९ भव राजुल के सम्बन्ध में हुए हैं। नौ ही जन्मो में देव-मनुष्य की दो ही गति का आश्रय लिया है। भगवान पार्श्वनाथ ने एक जन्म तिर्यंच गति में किया है।
- इस रह संसार में जन्म के बाद मरण, मरण के बाद पुनः जन्म, पुनः मृत्यु, पुनः जन्म पुनः मृत्यु यही क्रम अनादि काल से अनंत काल से सतत् चल रहा है इसी का नाम है संसार । ठीक ही कहा है कि 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननि जठरे शयनम्' फिर से जन्म-फिर से मृत्यु और फिर से माता की कुक्षी में जन्म लेना। (१३
कर्म की गति नयारी