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________________ यह अर्थ निकलता है कि एक हजार रुपए से कम भी नहीं और अधिक भी नहीं। पूरे एक हजार । उसी तरह यह केवलज्ञान में सिर्फ ज्ञान ही ज्ञान है, पूर्ण-संपूर्ण अनंत ज्ञान ही ज्ञान है। अनंत से कम भी नहीं और अनंत से ज्यादा भी नहीं । अनंत से ज्यादा तो संभव भी नहीं है। अंतः ऐसे केवल ज्ञानी का विषय अनंत द्रव्य है। अनंत जगत है। अनंत लोक-अलोक है ।तत्त्वार्थ में सूत्र है-'सर्व द्रव्य पर्यायेषु केवलस्य ।।३१।। सभी द्रव्य तथा सभी द्रव्यों की सभी पर्याय केवलज्ञान के विषय हैं। समस्त जगत् में द्रव्य कितने हैं? अनंत हैं । जगत् अनंत द्रव्यों-वस्तुओं से भरा पड़ा है। द्रव्य मुख्य रूप से दो हैं एक जीव और दुसरा अजीव । जगत् में निगोद से लगाकर सिद्धों तक अनंतानंत जीव हैं। उसी तरह अजीव है (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) काल तथा (५) पुदगलास्तिकाय ये मुख्य पांच भेद हैं। धर्मास्तिकाय जो गति सहायक असंख्य प्रदेशी द्रव्य समस्त चौदह राजलोक में फैला हआ है वह अरूपी होते हए भी केवलज्ञान का विषय बनता है। उसी तरह अधर्मास्तिकाय जो स्थिति सहायक गुणवाला, असंख्य प्रदेशी, लोकव्यापी, अरूपी द्रव्य है उसे भी केवलज्ञानी प्रत्यक्ष जानते हैं। आकाशास्तिकाय जो अवकाश देने के स्वभाववाला द्रव्य है। यह भी अरूपी अनंत प्रदेशी द्रव्य है । यह लोक अलोक सर्वत्र व्यापी है। यह क्षेत्र हैं। इसमें रहने वाले सभी अन्य द्रव्य क्षेत्री है। इसे भी केवली अच्छी तरह जानते हैं। देखते हैं। लोकाकाश कितना बड़ा है। कितना लम्बा चौड़ा है ? यह भी केवली ने ही बताया है कि लोक १४ राजलोक परिमित क्षेत्र है। लोक व्यापी आकाश को लोकाकाश कहते हैं, तथा अलोक अनंत है। अलोक अर्थात् लोक के बाहरी आकाश को अलोकाकाश कहते हैं। उसकी कोई सीमा नहीं है। दोनों के आकाश प्रदेश अखंड रूप से एक दूसरे से जुड़े हुए एक स्वरूप है। अतः संपूर्ण आकाश एक अखंड द्रव्य है। घटाकाश-मठाकाश आदि उपाधि भेद से जैसे आकाश के भेद बनते हैं वैसे ही एक अखंड आकाश के लोक के उपाधि भेद से लोकाकाश तथा अलोकाकाश भेद पड़े हैं। परंतु दोनों के अंतर्गत आकाशास्तिकाय अखंड द्रव्य है। सब जो भी कुछ जीव तथा जड़ पुद्गलादि द्रव्य हैं वे सिर्फ लोक में ही है। अलोक में कुछ भी नहीं है। अलोक में पुद्गल का एक परमाणु भी नहीं हैं। सर्वथा संपूर्ण खाली-रिक्त प्रदेश हैं । वहां कुछ भी नहीं है । यह भी किसने बताया? कोई छद्मस्थ अल्पज्ञ या अज्ञानी तो नहीं बता सकते हैं। अतः सर्वज्ञ केवलज्ञानी ने ही यह सब कुछ बताया है। केवलज्ञान से केवली लोकालोक व्यापी : ईश्वर को सर्वव्यापी और घट-घट व्यापी कहने वाले वैदिक दर्शन में कई दोष आते हैं। ईश्वर स्वदेह से सर्व व्यापी हो सके यह संभव नहीं है । सैकड़ों दोष आते कर्म की गति नयारी (२१४)
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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