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द्रव्य मूलस्वरूप में ध्रुव-नित्य रहा। अतः उत्पादादि तीनों अवस्था एक पदार्थ की होती है। यह सोने के विषय में बात की। वैसे ही आत्मा भी एक द्रव्य है । आत्मा की शरीरावस्था में पर्याय रूप से रहना होता है। पर्याय में उत्पाद-व्यय होता रहता है। अतः शरीर बनता है नष्ट होता है । एक मनुष्य शरीर पर्याय बनी है वह नष्ट होगी, फिर नई पर्याय उत्पन्न होगी। जीव अन्य गति में जाकर हाथी-घोड़ा पशु बना, पुनः नई उत्पत्ति । वह भी नष्ट होगा। पुनः नई पर्याय बनेगी। देव गति में जाकर देव बना । इस तरह पर्याय में उत्पाद और व्यय होता रहता है। यह क्रम चलते हुए भी आत्मा मूलभूत स्वरूप से नित्य रहती है। अतः आत्मा भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त द्रव्य है। इस तरह संसार के अनंत पदार्थ इन तीन अवस्थाओं से युक्त होते हैं । अतः सर्वज्ञ प्रभु ने केवलज्ञान पाकर इस त्रिपदी का ज्ञान प्रथम गणधरों को दिया। गणधर प्रभु से तत्त्व का मुलभूत ज्ञान प्राप्त कर सूत्रबद्ध रचना करते हैं । इस तरह द्वादशाङ्गी बनाते हैं। इसका प्रमाण देते हए शास्त्र में कहा है कि- 'अत्थं भासइ अरिहा सुत्तं गुथ्थंति गणहरा' । अरिहंत भगवान अर्थ से देशना देते हैं और गणधर भगवान उसे ही सूत्रबद्ध गूंथकर शास्त्र की रचना करते हैं। स्नातस्या की स्तुति में यही कहा गया है-अर्हद् वक्त्र प्रसूतं गणधर रचितं द्वादशागं विशालम्। अरिहंत तीर्थंकर भगवान के मुख से अर्थरूप से निकली हई और गणधर भगवंतों के द्वारा सूत्रबद्ध रचित द्वादशाङ्गी रूप जो श्रुतज्ञानस्वरूप आगम शास्त्र है उनकी स्तुति की गई है अतः श्रुतज्ञान का मूल उद्गमस्रोत केवलज्ञानी तीर्थंकर भगवान ही है। अतः प्रथम कमल में केवलज्ञान को मध्य केन्द्र में रखा है । अतः केवलज्ञान सभी ज्ञान का मूल है।
दूसरे चित्र में थोड़ी अपेक्षा बदलकर विचार किया गया है। दूसरे में श्रुतज्ञान को केन्द्र में रखा गया है और केवलज्ञान को उसके ऊपर रखा गया है। यहां केवलज्ञान से भी ज्यादा श्रुतज्ञान की महत्ता बताई गई है। काल की अपेक्षा से विचार किया जाय तो केवलज्ञान से भी ज़्यादा श्रुतज्ञान बड़ा है। श्रुतज्ञान केवलज्ञान से भी ज्यादा काल तक टिकता है। केवलज्ञान का काल और केवली भगवतो का काल भी सीमित है। मर्यादित है। सभी काल में केवलज्ञान नहीं होता,परंतु श्रुतज्ञान सदा काल ही रहनेवाला है। उदाहरणार्थ भगवान महावीर स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। प्रभु ३० वर्ष केवली रहे। उनके बाद १२ वर्ष तक गौतमस्वामी केवली रहे। उनके बाद सुधर्मास्वामी ८ वर्ष तक केवलज्ञानी रहे। उनके बाद उनके शिष्य जम्बुस्वामी २० वर्ष तक केवलज्ञानी रहे। इस तरह ३०+१२+८+२०-७० वर्ष तक केवलज्ञानियों का शासन रहा। परंतु इससे भी ज्यादा काल की अपेक्षा से श्रुतज्ञानियों का शासन रहा। ७० वर्ष के बाद आज दिन तक ढाई हजार वर्ष बीत गए। श्रुतज्ञानियों का शासन चल रहा है। इतना ही नहीं पांचवा आरा २१००० वर्ष का (१८३)
कर्म की गति नयारी