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________________ तीर्थंकर परमात्मा जो जन्मतः मति-श्रुत-अवधि इन तीन ज्ञान से सम्पन्न है और दीक्षा ग्रहण करते ही चौथा मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। चतुर्ज्ञानी महात्मा बने । उसके बाद घनघोर साधना करते हैं। कड़ी तपश्चर्या करते हैं। उपसर्ग होते हैं । अंत में चारों घनघाती कर्मों का क्षय करके अंतिम पांचवा केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। देवता केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाने के लिए आते हैं। समवसरण की रचना करते हैं। तीन गढ़ युक्त अद्भुत समवसरण बनाते हैं । अशोक वृक्ष के नीचे सिंहासन पर प्रभु बिराजमान होते हैं। चारों तरफ बारह पर्षदा, बिराजमान होती है। प्रभु धर्मदेशना फरमाते हैं। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध श्री संघ कीतीर्थ की स्थापना करते हैं । साधुओं में से प्रमुख योग्य साधुओं को गणधर बनाते हैं। व्दादशाङ्गी की रचना के लिए गणधर भगवन् प्रभु की प्रदक्षिणा करके प्रभु को पुछते हैं - "भयवं किं तत्तं' ? हे भगवन् ! तत्त्व क्या है ? प्रभु उत्तर देते हैं – “गोयमा! उप्पेइ वा इयं तत्तं' पदार्थ का उत्पन्न होना यह तत्त्व है। गौतम – (पुनः दूसरा प्रश्न) – “भयवं किं तत्तं ?” हे भगवन् तत्त्व क्या है? पुनः प्रभु का उत्तर - गोयमा ! विगमेइ वा इयं तत्तं' पदार्थ का नष्ट होना यह तत्त्व है। गौतम - (पुनः वैसा ही तीसरा प्रश्न) - "भयवं किं तत्तं ?'' हे भगवन् ! तत्त्व क्या है? पुनः प्रभु का उत्तर – गोयमा ! धुव्वेइ वा इयं तत्तं । पदार्थ का नित्य रहना यह तत्त्व है। _एक ही पदार्थ का उत्पन्न-होना, नष्ट होना तथा नित्य रहना यह स्वरूप है । यह तत्त्व है। “उप्पेइ वा, विगमेइ वा, धुव्वेइ वा इयं तत्तम्'। यह तीन पदों वाला ज्ञान है उसे त्रिपदी कहा है । उमास्वाति महाराज ने तत्त्वार्थधिगम सूत्र में इसे इस प्रकार कहा है-“उत्पाद-व्यव-ध्रौव्ययुक्तं सत्"। उत्पन्न होना, व्यय-नष्ट होना और नित्य रहना यह पदार्थ का लक्षण है। स्वरूप है। पदार्थ स्वरूप : पदार्थ इन तीन अवस्थाओं में रहता है। ये तीनों अवस्था प्रत्येक पदार्थ की है। वस्तु उत्पन्न होती है - बनती है, वही नष्ट भी होती है। गुणधर्म बदलते भी है, तथा पर्यायें बदलती है। पर्याय आकृति विशेष को कहते हैं। अतः एक पर्याय का नष्ट होना और दुसरी पर्याय का उत्पन्न होना यह उत्पाद-व्यय का क्रम चलता रहता है। उदाहरणार्थ सोने की एक पर्याय जो अंगूठी रूप में है वह पसंद नहीं आई तो उसे पिघलाकर हार बना दिया, हार पसंद नहीं आया तो उसे पिघलाकर पुनः कंगन बना लिए। इस तरह पूर्व-पूर्व पर्यायों का नाश होता जाता है और नई नई पर्याय उत्पन्न होती जाती है। अतः उत्पाद-व्यय दोनों एक ही वस्तु में होते हैं। यद्यपि उत्पादव्यय होते रहते हैं परंतु वस्तु अपने मूलभूत स्वरूप में नित्य है। अंगूठी से हार, हार से कंगन, होता ही गया, एक का बनना और एक का नाश होता ही रहना फिर भी सोना कर्म की गति नयारी १८२
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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