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________________ बनता है। देखने पर ऐसा लगता है कि पुत्रत्व-पितृत्व, पौत्रत्व, पितामहत्व आदि विरोधाभासी धर्म है। हम आश्चर्य में गिर जाते हैं कि - जो पुत्र है वह पिता कैसे हो सकता है? अरे...! जो पौत्र है वह पितामह कैसे हो सकता है? ये हमारे मन के विरोधाभासी प्रश्न है। हमें विपरीत लगते हैं - कि एक व्यक्ति में ये परस्पर विरोधाभासी धर्म कैसे रह सकते हैं ? परंतु ऐसा नहीं है। सभी धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षा से रहे हए हैं। जैसे अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है, परंतु उसी समय अपने पुत्र की अपेक्षा वह पिता भी है। वैसे ही अपने पितामह के सामने वह पौत्र है, परंतु अपने पौत्र का वह पितामह ही लगेगा। इस तरह भिन्न-भिन्न अपेक्षा से भिन्न-भिन्न अनेक धर्म एक व्यक्ति में रहते हैं। उन्हें हम अपेक्षाओं से देखकर व्यवहार करें वह सापेक्षवाद है। उन अनंत धर्मों को देखकर अनेकांतवाद कथन,करता है। उदाहरणार्थ यह एक व्यक्ति के बारे में देखा है। वैसे ही जगत् की अनंत वस्तूए हैं। प्रत्येक वस्तु अनंत धर्मात्मक है। अतः अनेकांतवाद उन अनंत धर्मों को भिन्न भिन्न अपेक्षा से देखकर पदार्थ का सही स्वरूप समझने की कोशिश करता है। उन सभी अपेक्षाओं को स्याद् शब्द से अंकित करके कहना ही स्याद्वाद है। स्याद् = का अर्थ है 'कथंचित्' और वाद का अर्थ है - ‘कथन करना-कहना' । अन्य अपेक्षाओं का लोप न करते हुए सभी अपेक्षाओं से वस्तु का कथन करने की पद्धति को स्याद्वाद कहते हैं। नित्य-अनित्य, एक-अनेक, भेद-अभेद, सामान्य-विशेष आदि कई धर्म है जो वस्तु में रहते हैं। उन्हें क्रमशः देखने के लिए सात ही प्रकार के भंग बनते हैं अतः सप्तभंगी कहलाती है। आपको आश्चर्य होगा कि सात ही भंग क्यों होते हैं? इसके उत्तर में कहा जाता है कि अनंत भगों में भी सात भंगों की ही कल्पना सिद्ध है। प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा प्रतिपाद्य संबंधी सात प्रकार के ही प्रश्न किये जा सकते हैं अतएव सात ही भंग होते हैं। प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा सात प्रकार की ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है, इसलिए सात प्रकार के ही प्रश्न उत्पन्न होते हैं। संदेह (शंका) के सात ही प्रकार हो सकते हैं इसलिए सात ही प्रकार की जिज्ञासा हो सकती है, तथा प्रत्येक वस्तु के सात ही धर्मों का होना संभव है, इसलिए संदेह भी सात ही प्रकार के होते हैं। यह भेद से संदेह की तरफ नीचे उतरते हुए उल्टे क्रम से सात ही भंग क्यों है का उत्तर दिया है। इसे ही यदि चढते क्रम से सीधे देखें तो वस्तु को समझने के लिए उसके धर्मों को देखने हेतु सात ही प्रकार की मन में शंकाएं (संदेह) जगते हैं, इसलिए कि वस्तु में सात ही धर्म होते हैं। सात धर्मों के आधार पर शंकाएं सात ही हई। शंकाएं सात ही इसलिए हुई कि प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा सात प्रकार की ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है। जिज्ञासा सात ही इसलिए होती है क्योंकि प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा प्रतिपाद्य संबंधी सात प्रकार के ही प्रश्न किये जा सकते हैं। इसलिए भंग संख्या भी सात ही होगी। वे कर्म की गति नयारी (१७०
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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