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________________ स (३) रस बंध रस बंध को ही अनुभाग या अनुभाव बंध कहते हैं । सत्यां स्थिती फलदान क्षमत्वादनुभाव बंधः । कालान्तरावस्था विपाकवत्तानुभाव बंधः । समासादितपरिकावस्थस्य बदरादेरिवोपभोग्यत्वात् सर्व- देशघात्येक द्वि- त्रि- चतुः - स्थान - शुभाशुभ तीव्रमन्दादि भेदेन वक्ष्यमाणः ।। I कर्म की स्थिति होते हुए फल देने की क्षमता से अनुभाव बंध कहा जाता है। विपाक के काल में शुभ या अशुभ कर्म के फल का अनुभव, शुभ-पुण्य प्रकृति का मलीन परिणाम से मंद, मंदतर तथा मंदतम रूप से बंध होता है । उसी तरह विशुद्ध परिणाम के आधार पर तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम रूप से बंध होता है यह रस बंध है। रस बंध का मुख्य कारण कषाय है । कषायों के आधार पर मुख्य रूप से अध्यवसायपरिणाम बनते हैं। आत्मा में जैसे जैसे कषाय की तीव्रता बढ़ती जाती है वैसे वैसे अशुभ कर्म में रस का प्रमाण बढ़ता जाता है और शुभ कर्म में घटता जाता है । उसी तरह आत्मा में कषायों की मात्रा जैसे जैसे घटती जाएगी वैसे वैसे शुभ कर्म में रस का प्रमाण बढ़ता जाता है और अशुभ कर्म में घटता जाता है। यह तराजु के पल्ले के जैसी बात है । रस बंध के तीव्र-मंदादि भेद से असंख्य प्रकार है, परंतु कर्म शास्त्र में एकस्थानीय, रसबंध १४९ - रस को उबालना मंद " C FILM तीव्रतर तीव्र द्विस्थानीय, तीनस्थानीय, चारस्थानीय के विभाग से चार भेद किए गए हैं। रस निकालने का साधन तीव्रतम रस बंध को समझने के लिए यहां नीम की पत्तियों के कटु रस का उदाहरण -कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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