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________________ मान - प्रमाद - । मद-८ विषय-५ कषाय-४ निद्रा-५ विकथा-४ जाति, लाभ, स्पर्श क्रोध निद्रा स्त्री कथा कुल, बल, रस निद्रानिद्रा देश कथा रूप, तप, गंध माया प्रचला भक्त कथा श्रुत, ऐश्वर्य वर्ण लोभ प्रचला प्रचला राज कथा शब्द थीणद्धि . . कषाय - कष् + आय = कषाय - कष् = संसार और आय = लाभ | अर्थात् संसार का लाभ जिससे हो वह कषाय है। अतः निश्चित हो गया कि जब जीव क्रोधादि कषायों कि प्रवृत्ति करेगा तब संसार अवश्य बढ़ेगा। संसार कब बढ़ेगा ? जब कर्म बंध होंगे तब। अतः कषाय सबसे ज्यादा कर्म बंधाने में कारण है। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उमास्वाति महाराज ने बताया है कि - सकषायत्वात् जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते (८-२)। कषायादि से युक्त (सहित) जब जब जीव होता है तब तब कर्म योग्य पुद्गलों को जीव खिंचता है, ग्रहण करता है। कषाय भाव में जीव कर्म से लिप्त होता है। ये कषाय आश्रव में भी कारण है तथा कर्म बंध में भी कारण है । आत्मा स्वभावदशा छोड़कर विभावदशा में जाती है यह प्रमादभाव है। अतः कषाय करना यह आत्मा का स्वभाव नहीं-विभाव है। इसलिए कषाय करना भी प्रमाद है। अतः कषायों को प्रमाद में भी गिना गया है। क्रोध-मान-माया और लोभ ये कषाय के मुख्य चार भेद हैं, परन्तु मूलरूप से देखा जाय तो राग-द्वेष ये दो ही मूल कषाय है। राग के भेद में माया और लोभ आते हैं । तथा द्वेष के भेद में क्रोध और मान गिने जाते हैं। । योग मन-वचन-काया के ये तीन योग भी कर्म बंध के हेतु हे जीवात्मा सारी प्रवृत्ति इन तीन करणों के सहारे ही करती है। किसी भी प्रकार की क्रिया में ये तीन . सहायक है। मन से सोचने-विचारने की क्रिया होती है। वचनं से भाषा का वाग् व्यवहार होता है। काया (शरीर) से हलन-चलन, आना-जाना, सोना-उठना, खाना-पीना, आहार-निहार आदि की क्रियाएं होती है । इन्द्रियां भी शरीरान्तर्गत ही गिनी जाती है। शरीर के ही अंग है। अतः आंख, कान आदि पांचो इन्द्रियों से देखना, सुनना, चखना-स्वादादि अनुभव करना, स्पर्शानुभव करना ये सारी क्रियाएं भी काया से ही होती है। काया की क्रिया प्रवृत्ति कहलाती है तो.मन की क्रिया वृत्ति के रूप से समझी जाती है। ये सभी कर्म बंध में कारण है अतः बंध हेतु के भेदों में योग को भी कर्म बंध का हेतु माना गया है । वैसे शास्त्र में योग १५ प्रकार का बताया (१४३) कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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