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________________ बनती है। कर्म योग-संयोग : कर्म संसक्त संसारी आत्मा देहधारी है। आखिर जब आत्मा को संसार में-संसारी अवस्था में रहना है तो निश्चित ही उसे किसी न किसी देह में ही रहना पड़ेगा। यह देह भी कर्म निर्मित है। तथाप्रकार के कर्मानुसार आत्मा ने रहने के लिए देह का निर्माण किया है। एक गृहस्थी के लिये जिस तरह घर-मकान की आवश्यकता अनिवार्य है। अथवा किसी द्रव्य पदार्थ को रखने के लिए किसी आधार पात्र की पूरी आवश्यकता रहती है ठीक उसी तरह आत्मा एक द्रव्य है। इसको संसार में रहने के लिए तथाप्रकार के देह की पूरी आवश्यकता है। बिना आधार पात्र के जैसे पानी आदि द्रव पदार्थ आकाश में लटकते हुए नहीं रह सकते हैं, ठीक उसी तरह बिना किसी शरीर के जीवात्मा संसार में नहीं रह सकती क्योंकि आत्मा निरंजन-निराकार अरूपी-अनामी है। यह शुद्ध स्वरूप संसार रहित मुक्तावस्था में सदा काल रहता है। परंतु संसारी अवस्था में देह की आवश्यकता अनिवार्य है। संसार में बिना देह के आत्मा नहीं रह सकती। देह निर्माण के लिए कर्म कारण रूप है । देह आया कि देह के साथ इन्द्रियां आई। इन्द्रियों मे जीभ आई कि भाषा का व्यवहार करने के लिए वचन योग आया,और आगे चलकर इन्द्रियों के पीछे अतीन्द्रिय मन आया। इस तरह आत्मा देह-इन्द्रियां-वचन एवं मन के घेरे में घिर गई। परिधि के मध्य में जैसे केन्द्र है वैसे ही देहादि की परिधि के मध्य में आत्मा है। पिंजरे में बंदिस्त पोपट की तरह आत्मा इस देह पिंजर में बंदिस्त है। अतः कर्माधीन जीव न केवल कर्म के ही आधीन हआ अपित् कर्म से जन्य शरीर-इन्द्रियां, वचन एवं मन के भी आधीन हो गया है। इसीलिए आज हम शरीर के पुलाम, परवश, इन्द्रियों के गुलाम तथा मन के गुलाम बने हए हैं। सभी जीवों को सभी इन्द्रियां नहीं मिलती कम-ज्यादा मिलती है। उसी तरह सभी जीवों को मन नहीं मिलता है। सिर्फ संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों को ही मन मिलता हैं । जहां तक इन्द्रियां ही पूरी न मिली हो वहां तक मन भी नहीं मिलता। पांचों इन्द्रियां मिल गई हो उसके बाद ही मन का नंबर आता है। इसलिए मन वाले जीव पंचेन्द्रिय ही होते हैं। पांच से कम इन्द्रिय वाले जीव मन वाले नहीं होते हैं। इस तरह जीव मन-वचन और काया के इन तीन के घेरे में घिर गया है। अब आत्मा को सारी प्रवृत्ति इन्हीं के माध्यम से करनी है। इन्द्रियां शरीर का ही भाग है। अंग विशेष है अतः इन्द्रियों को अलग से स्वतंत्र न गिनते हए इन्हें शरीर के अंतर्गत ही गिनकर चलते हैं। अतः मुख्य रूप से शरीर-वचन एवं मनोयोग वाले जीव हए। ये तीनों करण रूप है। क्रिया में सहायक-सहयोगी है। आत्मा इनके माध्यम से क्रिया करती है। संसारी अवस्था में सारी क्रियाएं इनकी सहायता से चलती हैं । कर्म की गति नयारी (१३४)
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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