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________________ M A TALE (८) भंडारी के जैसा -अंतराय कर्म - श्री राज दरबार के भंडार को संभालने वाला जो --, भंडारी होता है उसके पास राजाज्ञा प्राप्त पुरुष कोई एक हजार सोनामहोर लेने आया है। ऐसे समय भंडारी राजा की आज्ञा होते हुए भी मनाई करता है। नहीं मिलेंगे। पहले का हिसाब लाओ। क्या किया? कहां गए? अब नहीं मिलेंगे। भले ही राजा की आज्ञा हो। ठीक इसी तरह अंतराय कर्म है। यह विघ्नकर्ता है। दान-लाभ आदि प्राप्त होते हो उसमें विघ्न करने का काम अंतराय कर्म भंडारी की तरह करता है। इस अंतराय कर्म के कारण आत्मा अपने अनंत दानादि, अनंत शक्ति आदि गुणों को प्राप्त नहीं कर सकती है। होने पर भी बीच में विघ्न करता है वह अंतराय कर्म है। इसे भंडारी की-खजानची की उपमा दी गई है। इस तरह इन आठ कर्मों को अच्छी तरह से समझ सकें इसके लिए शास्त्रकार महर्षियों ने आठ प्रकार के लौकिक दृष्टान्तों को लेकर उपमा देते हुए समझाया है। जो स्वभाव इन आठ कर्मों का है। अनंत शक्तिमान आत्मा अपने अंदर ज्ञानदर्शनादि सब कुछ मूलभूत गुण एवं शक्तियां अनंत के प्रमाण में पड़ी हुई होते हुए भी इन आठ कर्मों से दबकर कुछ भी नहीं कर सकती है । यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है? इसीलिए कर्माधीन जीव आज कर्म के भार से दबा हआ होने के कारण आत्मा धारणानुसार आत्म गुणों का पूर्ण आविर्भाव नहीं कर पा रही है। यह तो तभी संभव है जब आत्मा सर्व कर्म मुक्त सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन जाय तब सभी गुण अपने पूर्ण स्वरूप में प्रगट हो जाएंगे। तब कोई कर्म नहीं रहेंगे। अतः धर्म की व्याख्या यही समझा रही है कि - जो आत्मा पर लगे हुए आवरक - गुण आच्छादक कर्म है उनको हटाने का पुरुषार्थ आत्मा को करना चाहिए। अनंत ज्ञान-दर्शनादि जो आत्म गुण है उन्हीं गुणों का जीव आचरण करें वही आचार धर्म हो जाएगा। ऐसे ज्ञानदर्शन-चारित्र-तप एवं वीर्य के नाम के पांच आचार है। उन्हें पंचाचार कहते हैं। इन पांचों आचार धर्मों का पालन करना अर्थात् स्वगुणोपासना करना यह मुख्य धर्म है। इन्हीं पंचाचार के धर्मों का प्रमुख रूप से आचरण करने से उन उन ज्ञान-दर्शनादि गुणों पर ढके हुए ज्ञानावरणीय -दर्शनावरणीय आदि कर्मों का क्षय होगा। इसलिए धर्म आत्म गुण प्रादुर्भावक एवं कर्म क्षय कारक उभय रूप होना चाहिए। जिससे दोनों कार्य होंगे। एक तरफ कर्म क्षय होगा तो दूसरी तरफ जैसे जैसे कर्मावरण हटते जाएंगे वैसे वैसे आत्म गुण प्रकट होते जाएंगे। यही धर्म का सही कार्य है-फल है। अतः तदनुरूप धर्म होना चाहिए। इस तरह कर्म सिद्धि के आधार पर धर्म की व्याख्या Eकर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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