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________________ स्वभाव होना चाहिए। बीज जला हुआ दग्ध होगा तो उगने का स्वभाव नष्ट होने के बाद कहां से उगेगा? नियति या भवितव्यता अनुकूल होनी चाहिए। नहीं तो टिड्डे आदि फसल को खतम कर दें अथवा बाढ़ भी आ सकती है। अतिवृष्टि-अनावृष्टि भी फसल को खतम कर सकती है । अतः नियति भी सानुकूल होनी चाहिए। पूर्वकतकर्मानुसार किसान का भाग्य भी ठीक होना चाहिए। वह भी पूरा साथ दे यह आवश्यक है। यदि पूर्वकर्मानुसार किसान रोग-ग्रस्त बीमार हो गया तो भी खेती नहीं हो पायेगी। ये चारों कारण ठीक तरह से हो परंतु पांचवां पुरुषार्थ यदि ठीक न हो तो, अर्थात् किसान आलसी हो, पुरुषार्थ करने में प्रमादी हो तो क्या होगा? सब कुछ होते हए भी खेती नहीं हो पायेगी। काल-स्वभावादि सब अनुकूल हो और एक भी विपरीत हो तो भी कार्य नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि खेती के एक कार्य में वर्षाऋतु का काल, बीज में अंकुरोत्पादक स्वभाव, अतिवृष्टि-अनावृष्टि न हो, बाढादि का न आना ऐसी सानुकूल नियति, पूर्वोपार्जित किसान का भाग्य जिससे जमीनादि अच्छी उपजाऊ मिलना और अन्त में किसान का अप्रमत्त पुरुषार्थ, पूरे ध्यान से उत्साहउमंग पूर्वक कार्य करना ये पांचों कारण सहकारी रूप से इकट्ठे होंगे तब एक खेती का कार्य होगा। ठीक इसी तरह समस्त जगत के सभी कार्य होंगे। इन पांचों कारणों का समुदाय रूप से शामिल होकर रहना अनिवार्य है। एक की अनुपस्थिति कार्य में बाधक बन जाएगी। इसी तरह उदाहरणार्थ मोक्ष प्राप्ति एक कार्य है। इसके लिए भी पांचों कारणों का होना अनिवार्य है। जैसे-मोक्ष प्राप्ति में चरमावर्त काल का होना और तथाभव्यत्व की परिपक्वता होनी चाहिए । मनुष्य भव चाहिये । धर्म सामग्री आदि देने वाला पूर्वकृत कर्म (पुण्य) चाहिये। इन सबके होते हुए भी स्वयं जीवात्मा चारित्र प्राप्त कर मोक्षमार्ग पर अग्रसर होने के लिए कर्मक्षय का पुरुषार्थ करे यह भी आवश्यक है। इन कालादि पांचों कारणों के समुदाय रुप से सहयोगी होने से ही मोक्ष प्राप्ति का कार्य सिद्ध होगा। अन्यथा एक की भी कमी कार्य सिद्धि में बाधक बन जाएगी। पांचों के स्वीकार में सम्यक्त्व : ___ “एकान्ता सर्वेऽपि एकेकाः"कालः,स्वभावः,नियति,पूर्वकृत्, पुरुषकारणरूपाः मिथ्यात्वम्। त एव समुदिताः परस्पराऽजहवृत्तयः सम्यक्त्वरूपतां प्रतिपद्यन्ते ।।" सिद्धसेन दिवाकरसूरि महाराज विरचित सन्मति तर्क महाग्रंथ के तीसरे कांड की ५२ वीं गाथा की टीका में पूज्य अभयदेवसूरिजी महाराज कहते हैं कि - ये (१७) कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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