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________________ मिच्छतं तं चेव उ, समासओ हुंति सम्मत्तं ।। सिद्धसेन दिवाकरसूरि महाराज फरमाते हैं कि - काल-स्वभाव-नियतिपूर्वकृतकर्म एवं पुरुषार्थ (पुरुषकारणता) इन सभी को एकान्त निरपेक्ष बुद्धि से भिन्नभिन्न मानना, या किसी एक को ही मानना, या स्वतंत्र रूप से ही एक ही कारण मानना ही मिथ्यात्व है । यदि इन पांचों कारणों को समवाय रूप से, पांचों को सापेक्षभाव से सभी को साथ में माने, समुदाय रूप से, समास - संयुक्त रूप से माने तो सम्यक् मान्यता होगी। तभी सम्यक्त्व होगा । अतः पांचों का सम्मिलित रूप ही स्वीकारना चाहिए । इसी बात को विशेष पुष्ट करते हुए पूज्य हरिभद्र सूरि महाराज ने शास्त्रवार्ता समुच्चय ग्रंथ में कहा है कि - अतः कालादयः सर्वे समुदायेन कारणम् । गर्भादेः कार्यजातस्य विज्ञेया न्यायवादिभिः ।। न चैकैकत एवेह क्वाचित्किञ्चिदपीक्ष्यते । तस्मात् सर्वस्य कार्यस्य सामग्री जनिका मता ।। कालादि पांचों की संयुक्त कारणता : काल-स्वभाव-नियति - पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ ये सभी कार्य में एकएक प्रत्येक रूप से कारण नहीं है । स्वतंत्र निरपेक्ष कारण मानने पर दोष आयेगा । अतः ये पांचों कारणों का समन्वय करना ही सम्यग् धारणा है । कालादि अन्य निरपेक्ष होकर कार्य के उत्पादक नहीं होते अपितु अन्यहेतुओं के सामग्रीघटक होकर कार्योत्पादकंता होते हैं । नियति आदि एक एक कारणमात्र से जगत् में किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं देखी जाती किन्तु कारण सामग्री से ही देखी जाती है और कारण सामग्री उस कारण से कथंचित् भिन्न भिन्न होती है । अतः एकैक कारण भी सामग्रीविधिया कार्य का कारण होता है । यदि निरपेक्ष हो तो अकारण होगा । कारण समुदायात्मक सामग्री में कार्य की उपादेयकता बतायी है । कारणों को कार्य की उत्पत्ति में अव्यवहित उत्तर क्षण में बताया जाता है । कार्यरूपी पालकी को उठाने के लिए एक कारण सक्षम नहीं होता है। पांचों कारण परस्पर सापेक्षभाव से मिलकर ही एक साथ उठायें तभी उठा सकेंगे। इन पांच कारणों में गौण-मुख्य भाव अपेक्षा से है । किसी भी कार्य में पांचों ही सम्मिलित होकर जरूर रहेंगे। लेकिन ये सभी गौणमुख्य भाव से रहेंगे। जिसकी बलवत्तरता होगी वह प्रमुख और अन्य गौण अर्थात् पुरुषार्थ की प्रधानता होगी तो दूसरों की गौणरूप से कारणता होगी परंतु होगी जरूर। उदाहरण के रूप में किसान खेती करता है तो उसमें वर्षाऋतु के काल की अपेक्षा रहती है। काल अनुकूल होना चाहिए। बीज में अंकुर उत्पन्न करने का कर्म की गति नयारी ९६
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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