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________________ ५० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र और दाँतों के लिये, तथा (अदिमिज-नह-नयण-कण्ण-हारुणि-नक्क-धमणि-सिंग-दाढिपिच्छ-विस-विसाण-वालहे) हड्डी, मज्जा, नख, आँख, कान, स्नायु - नसों - रगों, नाक, धमनियों-नाडियों, सींग, दाढ़, पिच्छ, विष, हाथीदांत और केशों के लिए मारते हैं। (य) और, (रसेसु गिद्धा) रसों में आसक्त लोलुप प्राणी (भमरमधुकरीगणे) भौरों और मधुमक्खियों को (हिंसंति) हिंसा करते हैं । (तहेव) इसी प्रकार, (वत्थोहरपरिमंडणट्ठा) घर में सोने, नहाने, शौच जाने, वस्त्रादि का प्रसाधन (शृंगार) करने, भोजन बनाने, भोजन करने, पानी रखने आदि के गृहों-उपगृहों का खासतौर से रंगरोगन करने या सुशोभित करने के लिए, (सरीरोवगरणट्टाए) शरीर और अन्य साधनों को संस्कारित करने या शुद्ध करने या मांजने धोने के लिए, (किवणे) दयनीय (बहवे) बहुत से (तेइंदिए) तीन इन्द्रियों वाले जीवों, (बेइंदिए) दो इन्द्रियों वाले प्राणियों को मारते हैं। (य) और, (एवमादिएहिं) ये और इसी प्रकार के (अण्णेहि) अन्य, (बहूहि) बहुत से, (कारणसतेहि) सैकड़ों कारणों से, (अबुहा) अज्ञानी जीव (इह) इस लोक में, (तसे पाणे) त्रस प्राणियों की, (हिंसंति) हिंसा करते हैं। (य) और (बहवे) बहुत से (वराए) बेचारे दीन, (इसे) इन सामने दिखाई देने वाले, (एगिदिए) एकेन्द्रिय (पाणे) जीवों का, (य) और (तदस्सिए) उन एकेन्द्रिय जीवों के आश्रित (चेव) ही, (अण्णे) दूसरे, (तणुसरीरे) बहुत छोटे शरीर वाले, (तसे) त्रसजीवों का, (समारंभंति) नाश कर डालते हैं। इसी तरह (अत्ताणे) सुरक्षारहित, (असरणे) शरणहीन, (अणाहे) अनाथ, (अबांधवे) बन्धुजनरहित, (कम्मनिगलबद्ध) कर्मों की बेड़ियों से जकड़े हुए, (अकुसल परिणाम मंदबुद्धि जणदुन्विजाणए) मिथ्यात्व के उदय से अशुभ परिणाम वालों तथा मंदबुद्धिलोगों द्वारा मुश्किल से जाने जा सकने योग्य जीवन वालों (पुढवीमए) पृथ्वीमयशरीर वालों ; (पुढवीसंसिए) पृथ्वी के आश्रित रहने वाले अलसिया आदि त्रस जीबों, एवं (जलमए) जलमयशरीरवालों (जलगए) जल के आश्रित रहने वाले फुहारे आदि जीवों , (अणलाणिलतणवस्सइगणनिस्सिए) अग्नि, वायु, तृण और वनस्पतिगण के आश्रित रहने वाले त्रस जीवों (य) और (तम्मयतज्जिए चेव) उन्हीं अग्नि, वायु, बनस्पति आदि के ही विकार जन्य, जो उन्हीं में रहते हैं, उन्हें, तथा अग्नि आदि की योनियों वाले जीवों, (तदाहारे) उन्हीं के आधार पर रहने वालों या पृथ्वी आदि का ही आहार करने वालों, (तप्परिणय-वण्णगंधरसफासबोंदिरूवे) उन्हीं पृथ्वी आदि के रूप में परिणत वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शमय शरीर वालों, (अचक्खुसे) आँखों से नहीं दिखाई देने वालों (य) और (चक्खुसे) आँखों से दिखाई देने वालों, (असंखे तसकाइए) असंख्य त्रसकायिक जीवों (य) तथा (सुहमबायर पत्तेयसरीर नामसाधारणे अणंते थावरकाए) सूक्ष्म, बादर, प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर पाले अनंत स्थावर कायिक जीवों का, (अविजाणओ) अपने दुःख को नहीं जानने वाले (य) और (विजाणओ)
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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