SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 882
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह संवर ८३७ और मच्छरों के उपद्रव; इन सब दुःखद स्पर्श एवं(दुणिसज्ज-दुन्निसोहिया-दुब्भिकक्खडगुरुसीयउसिणलुक्खेसु) बैठने की खराब जगह, कष्टकर स्वाध्यायभूमि-निषोधिका का स्पर्श तथा अत्यन्त कठोर, अत्यन्त वजनदार, अत्यन्त ठंडा, बहुत ही गर्म, एकदम रूखा, (य) तथा (एवमादिएसु अन्नसु अमणुनपावकेसु बहुविहेसु) इसी प्रकार के अनेक किस्म के अन्यान्य अमनोज्ञ तथा पापकर्मजन्य अशुभ उन-उन स्पर्शों के प्राप्त होने पर (समणेण) संयमी श्रमण को, (न रूसियव्वं) उन पर या उनके किसी निमित्त पर क्रोध नहीं करना चाहिए, (न हीलियम्वं) न तिरस्कार करना चाहिए, (न निदियध्वं) न वस्तु या उसके निमित्त रूप बने व्यक्ति की निन्दा ही करनी चाहिए, (न गरहियव्वं) न लोगों के सामने उसके दोषों का भंडा फोड़ना चाहिए, (न खिसियव्वं) न खोजनाचिढ़ना चाहिए, (न छिदियव्वं) उस वस्तु या तन्निमित्त व्यक्ति को तोड़ना-फोड़ना न चाहिए, (न भिदियव्वं) न उस वस्तु या व्यक्ति का भेदन करना चाहिए; (न वहेयव्वं) न वध-मारपीट करना चाहिए, (च) और (न दुगुछावत्तिया उप्पाएउ लब्भा) उस वस्तु या व्यक्ति के प्रति घृणा, नफरत या जुगुप्सा की भावना पैदा करना भी उचित नहीं है । (एवं) इस प्रकार (फासिदियभावणाभावितो) स्पर्शेन्द्रिय भावना से (अंतरप्पा) साधक की अन्तरात्मा सुसंस्कृत (भवति) होती है । (मणुन्नामणुन्नसुब्भिदुभिरागदोसपणिहियप्पा) मनोज्ञ या अमनोज्ञ, शुभ या अशुभ स्पर्शों के प्राप्त होने पर राग और द्वेष को रोक कर आत्मा में सुस्थित हो कर (साहू) स्वपरकल्याणसाधक साधु (मणवयकायगुत्ते) मन, वचन और काया को संगोपन करता हुआ, (संवुडे) संवरभावना से युक्त होकर (पणिहितदिए) इन्द्रियों को समाधिस्थ करके यानी विषयों से हटा कर निश्चल करके (धम्मं चरेज्ज) शु द्धधर्म का आचरण करता है। (एवं) इस प्रकार (इणं संवरस्स दारं) यह अपरिग्रह नामक संवर का द्वार (इमेहिं पंचहि वि कारणेहिं) इन पांचों भावनारूप कारणों से (मणवर कायपरिरक्खिएहि) मन, वचन और काया को विविध परिग्रहों से बचा कर सुरक्षित रखने से (सम्मं सुप्पणिहियं) साधक के संस्कारों में अच्छी तरह जम जाता, निष्ठित हो जाता (होइ) है, (संवरियं) संवर से ओतप्रोत हो जाता है । (धितिमया) धैर्यवान् एवं (मतिमया) बुद्धिमान साधक को (आमरणंतं) जीवन के अन्त तक (निच्चं) प्रतिदिन (एस जोगो नेयम्वो) पांच भावनाओं के चिन्तनरूप यह प्रयोग करना चाहिए जो (अणास ) आश्रवरहित है, (अकलुसो) निर्मल है, (अच्छिद्दो) किसी दोष को घुसने के अवकाश से रहित, (अपरिस्सावी) पापस्रोतों से रहित, सकल गुणधारी होने से
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy