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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(असंकि लिट्ठी) संक्लेशकर परिणामों से रहित, (सुद्धो) शुद्ध, (सव्वजिणमणुन्नातो) समस्त तीर्थकरों द्वारा अनुज्ञात है मान्य है ।
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( एवं ) पूर्वोक्त प्रकार से (पंचमं ) पांचवां ( संवरदार) परिग्रहविरमण - अपरिग्रहरूप संवरद्वार ( फासियं ) शरीर से क्रियान्वित किया हुआ - अमल में लाया हुआ, ( पालियं ) पालन किया हुआ, (सोहियं) अतिचार दूर करके शोधन किया गया, ( तीरियं) अन्त तक पार लगाया हुआ, (किट्टियं) दूसरों को आदरपूर्वक बताया हुआ हो ( आणाए आराहियं ) भगवदाज्ञा या शास्त्राज्ञानुसार आराधित (भवति) होता है । एवं ) इस तरह से ( नायमुणिणा भगवया) ज्ञातवंश में उत्पन्न श्री भगवान् महावीर द्वारा ( पनवियं) हितोपदेशरूप में बताया गया, (परूवियं) भव्यजनों के सामने अर्थतः प्ररूपण किया गया (पसिद्ध) जगत में प्रसिद्ध किया हुआ, (सिद्ध) नयों और प्रमाणों से सिद्ध (सिद्धवरसासणं) सिद्धों की श्रेष्ठ आज्ञारूप है, ( आघवियं) मर्यादाओं की रक्षा के लिए कहा गया है, (सुदेसियं) भलीभांति उपदिष्ट है, ( पसत्थं ) प्रशस्त - मंगलमय, (इणं पंचमं संवरदारं समत्तं ) यह पांचवां संवरद्वार समाप्त हुआ । (ति बेमि) इस प्रकार मैं ( सुधर्मास्वामी ) कहता हूँ ।
' ( सुव्वय !) हे सुव्रत ! (एयाइ) ये (पंचवि) पांचों ही ( महव्वाइ) महाव्रत (हे उसयविवित्तपुक्खलाई ) सैकड़ों निर्दोष हेतुओं से विस्तीर्ण, (अरिहंतसासणे.) अरिहंत प्रभु के शासन में (समासेण) संक्षेप में ( कहियाई ) कहे गये हैं । ( वित्थरेण उ) विस्तार से तो ( पणवीसई) पच्चीस ( संवरा ) संवर बताए गए हैं । (समिय
१ – पाठान्तर का पदान्वयार्थ - ( सुव्वय) हे सुव्रत ! (एयाणि पंचावि महत्वयाणि) ये पांचों ही महाव्रत, ( लोकधिकराणि ) लोक को धारण करने वाले . या जगत् को धैर्य बंधाने वाले, ( सुयसागरदेसियाणि आगमसागर में उपदिष्ट हैं, (संजम सीलवय सच्चज्जवमयाणि) संयम, शील, व्रत, सत्य और सरलता आदि गुणमय हैं, ( नरयतिरियदेवमणुयगइविवज्जियाणि) शुद्ध रूप से पालन करने पर नरक, तिर्यच, देव और मनुष्यगति से छुड़ाने वाले हैं, सव्वजिणसासणाणि) समस्त तीर्थंकरों की आज्ञारूप हैं, ( कम्मरयवियारकाणि) कर्मरज को मिटाने वाले हैं, ( भवराय विमोयकाणि) सैकड़ों भवों से छुटकारा दिलाते हैं, ( दुक्खविणास काणि) सैकड़ों दुःखों का नाश करने वाले हैं, ( सुखसयवत्तयाणि) सैकड़ों सुखों के प्रवर्तक हैं, (कापुरिसद्म तराणि ) कायरों के लिए दुस्तर हैं, ( सप्पुरिसजणतीरियाणि) सत्पुरुषों द्वारा पार लगाए हुए हैं । ( निव्वाणगमणजाणाणि) निर्वाणगमन के लिए यानरूप हैं, ( सग्गपवायकाणि) स्वर्ग में पहुंचाने वाले ( कहियाणि) कहे हैं ।
सम्पादक