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________________ ८३२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र को देख कर (य) और ( एवमादिएसु अन्नेसु मणुन्नभद्दएसु तेसु रूवेसु) ये तथा इसी प्रकार के अन्य चक्षुग्राह्य, मनपसन्द एवं सुहावने सलौने उन-उन प्रसिद्ध रूपों मेंदृश्यमान वस्तुओं में, (समणेण ) संयमी साधु को (न सज्जियव्वं ) आसक्त नहीं होना चाहिए, ( न रज्जियव्वं ) राग नहीं करना चाहिए ( जाव) यावत् पहले की तरह गृद्धि, मोह, लोभ, हास्य, न्योछावर या प्रसन्नता आदि नहीं करना चाहिए; ( तत्थ य) और उनको ( न स च मई च कुज्जा) न तो याद ही करना चाहिए और न उनमें बुद्धि लगानी चाहिए। ( पुणरवि) और दूसरी तरह से ( चक्खिदिएण ) चक्षुइन्द्र से ( अमण न्नपावकाइ रुवाइ ) अमनोज्ञ एवं पापजन्य अशुभ – असुन्दर रूपों को (पास) देख कर द्व ेषादि नहीं करना चाहिए। ( कि ते ?) वे रूप कौन-कौन से हैं ? (गंड-कोढिक -- कुणि उदरि-कच्छुल्ल पइल्ल- कुज्ज पंगुल - वामण- अंधिल्लग - एगचवखुविणिय सप्पिस ल्लग वा हिरोगपीलियं ) गंडमाला के रोगी, कोढ़ी, लूले या टोंटे, जलोदर के रोगी, खुजली के रोगी, हाथीपगा या कठिन पैर वाले, कुबड़े, लंगड़े या अपाहिज बौने, अन्धे, काने, जन्मान्ध, भूत या पिशाच से ग्रस्त, अथवा पीछे के बल चलने वाले अथवा कमर झुका कर लाठी लिये चलने वाले, विशेष पीड़ा या चिरस्थायी बीमारी से अथवा तत्काल मिट जाने वाले रोग से पीड़ित (य) तथा ( विगयाणि मयक कलेवराणि) भोंडे भद्द विकृत - बिगड़े हुये मुर्दों की लाशों को (च) तथा ( सकिमिणकुहियं) कीड़ों से भरे हुए, सड़े हुये (दव्वरासि) पदार्थों के ढेर को देख कर (य) तथा ( एवमादिसु अन्नेसु तेसु अमणुन्नपावकेसु) इसी प्रकार के अन्य उन-उन प्रसिद्ध अमनोज्ञ, पापकर्मजनित अशोभनीय बुरे रूपों में (समणेण ) अपरिग्रही श्रमण को ( न रूसियध्वं ) रोष नहीं करना चाहिये । ( जाव) यावत् अवहेलना, तिरस्कार, निन्दा, फटकार, धिक्कार, मारपीट, उस वस्तु को तोड़ना फोड़ना आदि नहीं करना चाहिये । (दुगु छावत्तिया वि) उनके प्रति घृणा या जुगुप्सा का बर्ताव भी ( उप्पातेउं ) उत्पन्न करना ( न लब्भा) उचित नहीं है । ( एवं ) इस प्रकार ( चक्खि दियभावणाभावितो) चक्षुरिन्द्रियभावना से संस्कारित ( अंतरप्पा ) अन्तरात्मा साधु (भवति) होता है, ( जाव) यावत् वह स्वपरकल्याणसाधकं साधु मनोज्ञ-अमनोज्ञ, शुभाशुभ वस्तुओं या दृश्यों को देख कर राग और द्वेष को आने से रोक लेता है और अपने मन, वचन एवं शरीर को उन उन दृश्यों से होने वाले रागद्व ेषादि से बचा कर रखता है, वही सुस्थितेन्द्रिय अपरिग्रही साधक ( चरिज्ज धम्मं ) धर्म का यथार्थरूप से आचरण करता है । -
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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