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________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिगह-संवर (ततियं) तीसरी भावनावस्तु इस प्रकार है- (घाणिदिएण) घ्राणेन्द्रिय-नाक से (मणुन्नभद्दगाई) सूघने योग्य मनोज्ञ और घ्राणप्रिय (गंधाइ) गन्धों को (अग्धाइय) सूघ कर रागादि न करे । (किं ते) वे गन्ध कौन-कौन-से हैं ? (जलयथलय-सरस-पुष्फ-फल-पाण-भोयण-कुट्ठ-तगर-पत्त चोय-दमणक-मरुय-एलारस-पक्क मंसिगोसीस-सरसचंदण-कप्पूर-लवंग - अगर-कुंकुम-कक्कोल - उसीर-सेयचंदण-सुगंध-सारंगजुत्ति वरधूववासे , जलजन्य, स्थलजन्य सरस फूल, फल, पान-पैयद्रव्य, भोजन, सुगन्धित कमलकुष्ठ नामक पदार्थ, तगर, तमालपत्र या अन्य कोई सर्वसुगन्धित द्रव्यविशेष, सुगन्धित छाल, दमनक नामक फूल, मरुए का फूल, इलायची का रस, जटामांसी, गोशीर्ष नामक सरस चन्दन, कपूर, , लौंग, अगर, केसर, कक्कोल नामक खुशबूदार फल, खसखस, सफेद चन्दन, सुगन्धित कमल आदि पदार्थों के संयोग से बनी हुई श्रेष्ठ धूप की सुवास को सूंघ कर (तेसु) उनमें (य) तथा (उउयपिंडिम-णिहारिमगंधिएसु) विभिन्न ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले कालोचित, बहुत-सी इकट्ठी सुगन्ध वाले एवं बहुत दूर तक फैलने वाली घनी सुगन्ध से युक्त द्रव्यों (य) तथा (अन्नेसु एवमादिएस मणुन्नभद्दएसु तेसु गंधेसु) इसी प्रकार की मनोहर नासिकाप्रिय उन-उन सुगन्धों के विषय में (समणेण) अपरिग्रही श्रमण को (न सज्जियां) आसक्ति नहीं करनी चाहिए, (जाव) यावत् उनके बारे में राग, मोह, लोभ, गृद्धि, हास्य, प्रसन्नता, न्यौछावर आदि करना योग्य नहीं है । (न सइंच मइंच तत्थ कुज्जा) न उनके सम्बन्ध में बार-बार स्मरण करना चाहिए और न ही उनमें बुद्धि लगानी चाहिए । (पुणरवि) और तरह से भी (घाणिदिएण) घ्राणेन्द्रिय-नासिका से (अमणुन्नपावकाई) अमनोज-मन के प्रतिकूल एवं पापजनित अशुभ-बुरे (गंधाणि) गन्धों को (अग्घातिय) सूघ कर रोष आदि न करे । (किते) ? वे दुर्गन्ध कौन-कौन-से हैं ? (अहिमड-अस्समड-हत्थिमड-गोमड-विग - सुणग - मणुय-मज्जार-सीवाल - दोवियमयकुहियविणट्ठकिविणबहुदुरभिगंधेसु) मरे हुए सांप, मृत घोड़े, मृत हाथी, मृत गाय, तथा भेड़िया, कुत्ता, मनुष्य, बिल्ली, सियार, सिंह एवं चीता आदि के मरे हुए सड़े-गले शवों की, कीड़ों से कुलबुलाते हुए बहुत दूर-दूर तक बदबू फैलाने बाले दुर्गन्धों में (य) तथा (एवमादिएसु अन्न सु अमणुन्नपावएसु तेसु गंधेसु) इस प्रकार के और भी अमनोज्ञ एवं पापजनित अशुभ उन-उन दुर्गन्धों के विषय में (समणेण) अपरिग्रही साधु को (न रूसियव्वं) रोष नहीं करना चाहिए (न हीलियम्व) न नाक-भौं सिकोड़ना या बन्द करना चाहिए; (जाव) यावत् उपेक्षा, निन्दा, तिरस्कार, तोड़-फोड़, मारपीट, घृणा५३
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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