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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह - सवर
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निम्मे – धर्मोपकरण के रूप में रखी हुई चीजों पर भी उसकी ममता नहीं
होती । वह उन्हें भी आवश्यकतावश ही रखता है ।
निन हबंधने - अपने पूर्वाश्रम के सम्बन्धियों या साधु जीवन में परिचय में आने वाले भक्त भक्ताओं या शिष्य - शिष्याओं के साथ भी उसका स्नेहबन्धनमोहबन्धन नहीं होता। सिर्फ धर्मस्नेह का प्रशस्त बन्धेन होता है या कर्त्त व्यबन्धन होता है ।
सव्वपावविरते-हिंसा आदि समस्त पापों से वह विरक्त रहता है । वह किसी भी पापकर्म में प्रवृत्त होने से हिचकिचाता है ।
वासीचंदणसमाणकप्पे कुल्हाडी चलाने वाले अपकारी और चंदन लगाने वाले उपकारी दोनों के प्रति मन, वचन, काया से उसका समान विकल्प रहता है । यह स्थिति बड़ी कठिन है । परन्तु अपरिग्रही के जीवन में यह बखूबी देखी जा सकती है । शत्रु और मित्र दोनों के प्रति वह समदर्शी रहता है ।
समतिणमणिमुत्ताले ट्ठकंचणे - तिनका हो, चाहे मणि हो या मोती, ढेला हो या सोना हो, दोनों के प्रति अपरिग्रही सम रहता है । उसे प्रिय वस्तु में हर्ष और अप्रिय वस्तु में विषाद नहीं होता ।
समे य माणाव माणणाए – सम्मान मिले, चाहे अपमान मिले, स्तुति प्रशंसा हो, चाहे निन्दा - आलोचना, दोनों अवस्थाओं में उसके मन में प्रीति - अप्रीति नहीं पैदा होती । और न ही वह सम्मान प्रतिष्ठा पाने के लिए दौड़धूप करता है और न अपमान या निन्दा के निवारण के लिए वह खास प्रयत्न करता है ।
समियर – पापकर्मरूपी रज को या विषयों में रय- उत्सुकता को उसने समाप्त कर दिया है। पांचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन में उसका उत्साह नहीं होता; बल्कि वह उनसे कम से कम परिचय करना चाहता है ।
समिए समितीसु - पांचों समितियों को वह अपरिग्रहवृत्ति में सहायक मानता है और इसी कारण वह पांचों समितियों के पालन में दत्तचित्त रहता है ।
सम्मविट्ठी – अपरिग्रही साधक के लिए सम्यग्दृष्टि होना तो मुख्य और मूल बात है । ज्ञानादि किसी भी साधना में वह सम्यग्दर्शन को मुख्य केन्द्र मान कर चलता है । इसी कारण वह अपरिग्रह - परिग्रहत्याग को भी केवल भौतिक दृष्टि से नहीं, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से अपनाता है ।
समय सव्वपाणभूतेसु — अपरिग्रही किसी भी प्राणी के जीवन का मूल्य कम नहीं आंकता । प्राणी चाहे छोटा हो या बड़ा, वह ऊपर के चोले को न देख कर उसके अन्दर विराजमान शुद्ध आत्मा की दृष्टि से उसे देखता है । बाह्य आवरणों को चीर