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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
कर उसकी पारदर्शी दृष्टि विशुद्ध आत्मतत्त्व को देख पाती है । इसलिए वह त्रस और स्थावर सभी जीवों के प्रति समभाव रखता है।
से हु समणे-अपरिग्रही ही वास्तव में श्रमण होता है। श्रमण का अर्थ तपस्वी भी होता है, आत्मगुणों की या आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए श्रम करने वाला भी होता है, सममन (समचित्त) भी होता है और शमन अर्थात् शान्तकषाय भी होता है। अपरिग्रही में ये गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं।
सुयधारए - वह वास्तव में श्रुतधारक या शास्त्रज्ञ भी होता है। शास्त्र या सिद्धान्त को अपरिग्रही ही पचा सकता है। जो परिग्रह के प्रपंच में पड़ा रहता है, वह भला शास्त्र की बातों को जीवन में कैसे उतार पाएगा? अतः अपरिग्रही का अन्तःकरण आगम के तत्त्वज्ञान से ओतप्रोत रहता है।
उज्जुते- वह हमेशा अपरिग्रह की साधना में उद्यत रहता है । अथवा मायाकपट से रहित हो कर जैसी बात होगी, वैसी बात सरलता से कहेगा। झूठफरेब या प्रपंच से वह दूर रहता है।
___ स साहू -वही स्वपरकल्याण का साधक होता है। क्योंकि निष्परिग्रही बनने पर ही साधक अपना कल्याण कर सकता है और वही दूसरों को कल्याण का रास्ता बता सकता है।
सरणं सव्वभूयाणं- वह सभी प्राणियों के लिए आश्रय-स्थल होता है। क्योंकि उसके हृदय में सभी प्राणियों के एकान्तहित की भावना होती है। उसका दिल प्राणियों को अपने कर्मों के कारण कष्ट पाते देखकर द्रवित हो उठता है। इस कारण सभी को वह प्रिय और अपना लगता है और सभी प्राणी उसकी शरण में आकर मन का सही समाधान पाते हैं, शान्ति पाते हैं।
___ सव्वजगवच्छले-वह सारे विश्व के प्राणियों के प्रति वात्सल्य भाव से ओतप्रोत रहता है । सब प्राणियों को वह अपना आत्मीय मानता है, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना उसके हृदय में लबालब भरी रहती है।
सच्चभासके- जब सारे ही जगत् को वह अपना मानेगा तो किसी के साथ असत्य बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता। इसलिए वह सत्यवादी होगा। कभी असत्य का सहारा नहीं लेगा।
___संसारतदिठते, संसारसमुच्छिन्ने, सततं मरणाण पारए-ये तीनों विशेषण अपरिग्रही को व्रतपालन से होने वाली उपलब्धि के बारे में हैं। अपरिग्रहवती संसार के अन्तिम तट पर स्थित हो जाता है, जन्ममरण का चक्र काट देता है और