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________________ ८१४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र करते जाते हैं, वे लोग प्रायः उस परिग्रह के कारण चरित्रभ्रष्ट और पतित होते देखे-सुने गये हैं। इसलिए साधारण साधक परिग्रह-अपरिग्रह की इस उलझन में पड़ कर यह स्पष्ट नहीं समझ पाता कि अपरिग्रही किसे कहा जाय ? उसकी क्या पहिचान है ? वह कैसे बोलता है, कैसे चलता है, कैसा व्यवहार करता है ? क्या और कैसे खाता-पीता है ? कैसे और कहाँ रहता है ? कहाँ और किस प्रकार विचरण करता है ? क्या और किस ढंग से सोचता है ? जगत के विषयों व पदार्थों को किस दृष्टि से देखता है ? उसकी किस विषय में रुचि या अरुचि होती है ? संकटों, कष्टों और परिषहों-उपसर्गों के समय वह क्या रुख अपनाता है ? रागादिवर्धक या द्वेषादिवर्धक बाह्य पदार्थों का उसके मन पर क्या असर होता है ? अन्तरंग परिग्रहों के प्रति उसका दृष्टिकोण कैसा और क्या रहता है ? अनिवार्य उपकरणों को अपनाने के बारे में उसकी भावना क्या रहती है ? इन सब बातों से ही अपरिग्रही का पूरा परिचय हो सकता है। आभ्यन्तर-परिग्रह-त्याग की प्रतिज्ञा ले लेने और बाह्यपरिग्रह का त्याग कर देने मात्र से किसी भी साधक के अन्तर की गहराई का पता नहीं लग सकता। अन्तर की वृत्तियां इतनी सूक्ष्म हैं कि उनमें काम, क्रोध, अहंकार (मद), मोह, लोभ आदि चीजें बहुत ही सूक्ष्म-रूप में पड़ी रहती हैं। इसलिए व्यवहारों से ही प्रायः उसके जीवन का पता लग सकता है। बहुधा अन्तर की वृत्तियाँ या सूक्ष्म वासनाएँ ही बाहर के व्यवहार में, बोल-चाल में, चेष्टाओं में, प्रवृत्तियों में उभर कर आती हैं। यही कारण है कि शास्त्रकार ने अपरिग्रही के व्यक्तित्व के पूर्ण परिचय के बारे में उठाए गए उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर इस विस्तृत सूत्रपाठ में दे दिया है। इसमें अपरिग्रही का सांगोपांग परिचय आ जाता है । अब हम क्रमशः प्रत्येक पद का संक्षेप में विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे____ संजते-अपरिग्रही साधु मनवचनकाया की अपनी प्रवृत्तियों पर संयम रखता है । वह कोई ऐसी प्रवृत्ति नहीं करता, जो संयम से विपरीत हो, उच्छृखल हो। विमुत्ते- वह जमीन-जायदाद, धन-सम्पत्ति आदि से मुक्त होता है। जिन वस्तुओं को उसने छोड़ दिया है, उन्हें अब वह अपनाना वमन किये हुए को चाटने के समान समझता है। निस्संगे- वह परिग्रह में बिलकुल आसक्ति नहीं रखता। वह यही समझता है कि किसी वस्तु के पीछे मोहवश चिपटना ही दुःख-वृद्धि का कारण है। . निप्परिग्गहराई-उस की रुचि परिग्रह के बारे में बिलकुल नहीं होती। उसे सदा परिग्रह से अरुचि रहती है। वह धर्मोपकरण के सिवाय किसी भी चीज को लेना या संग्रह करके रखना पसन्द नहीं करता।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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