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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
है-महारम्भ करने से, महापरिग्रह रखने से, पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से और मांसाहार से।
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शतक ८ उ०६ में तथा औपपातिक सूत्र वीरदेशना में भी 'कुणिम' शब्द का मांस अर्थ ही किया गया है। जैसे—'कुणिमाहारेणं इतिमांस-भोजनेनेति' 'कुणिमं मांसमिति ।'
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में मनुष्यों द्वारा सम्यमर्यादा की प्रतिज्ञा के समय सर्वप्रथम मांसाहार आदि अशुभ पदार्थ का सेवन करने वाले की छाया भी शरीर पर नहीं पड़ने देने का यानी एक पंक्ति में बैठ कर मांसाहारी के साथ भोजन न करने का स्पष्ट उल्लेख है । देखिये वह पाठ
___ 'अम्हं केइ अज्जपभिई असुभं कुणिमं आहारं आहारिस्सइ, से णं अणेगाहिं छायाहिं बज्जणिज्जेत्ति कटु संठिई ठवेस्संति ।'
उपासकदशांगसूत्र के प्रथम अध्ययन में आनन्द श्रमणोपासक के सातवें उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत के ग्रहण करने के समय उपयोग्य और परिभोग्य वस्तुओं में मद्य और मांस का जरा भी उल्लेख नहीं है। अगर श्रमणोपासक के लिए ये दोनों चीजें सेवनीय होतीं तो यहाँ आहार वगैरह की मर्यादा के समय इन दोनों का भी नामोल्लेख जरूर होता। परन्तु यहाँ नामोल्लेख न होने से स्पष्ट है कि गृहस्थ श्रावक की मर्यादा में भी ये दोनों चीजें वर्जित हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र के ७ वें अध्ययन में मद्य-मांस-सेवनकर्ता को नरकायु का बन्ध बताया है । वह पाठ यह है
"इत्थी - विसयगिद्ध य महारंभ - परिग्गहे । भुजमाणे सुरं मंसं परिबूढे परंदमे ॥६॥ अयकक्करभोई य डिल्ले चियलोहिए।
आउयं नरए कंखे जहाएसं व एलए ॥७॥ इन सब प्रमाणों के अतिरिक्त समवायांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र अ० ३१, स्थानांगसूत्र स्थान ६, श्रमणसूत्र आदि अनेक सूत्रों में मांस-मद्यसेवन के निषेधक अनेक प्रमाण मिलते हैं। इन सबसे स्पष्ट हो जाता है कि साधु के लिए ही क्या, श्रमणोपासक एवं आर्य, सभ्य गृहस्थ तक के लिए मांसमद्य सर्वथा निषिद्ध हैं।
साधु के लिए ग्राह्य धर्मोपकरण - अब सवाल यह होता है कि जब साधु अपरिग्रही होने के नाते अपने पास संग्रह करके भोजन, औषध, भैषज्य आदि नहीं रख सकता; तब क्या अपने संयमी जीवन के लिए उपयोगी एवं अनिवार्य वस्त्र-पात्र भी नहीं रख सकता ? इसके उत्तर में शास्त्रकार स्वयं समाधान करते हैं—'जपि सम