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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर णस्स सुविहियस्स तु पडिग्गहधारिस्स भवति भायण - भंडोवहिउवगरणं........ परिहरियव्वं' – इन सब सूत्र पंक्तियों का अर्थ तो मूलार्थ एवं पदान्वयार्थ में स्पष्ट किया जा चुका है; सिर्फ इनके पीछे शास्त्रकार का आशय स्पष्ट करना शेष है।
यद्यपि यहाँ जो भी उपकरण विहित बताये गए हैं, वे स्थूलदृष्टि से देखने वाले को परिग्रह ही लगेंगे, किन्तु शास्त्रकार की दृष्टि परिग्रह के वास्तविक अर्थ की
ओर है। इसलिए वे इन सब उपकरणों के साथ परिग्रहदोष एवं हिंसादोष को टालने एवं इन्हें अपरिग्रही के लिए ग्राह्य और रखने योग्य मानने पर ही जोर देते हैं । इसके लिए दशवैकालिकसूत्र का प्रमाण हम परिग्रह-आश्रव के प्रकरण में प्रस्तुत कर चुके हैं। वहाँ 'संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति य' (संयमपालन और लज्जानिवारण के लिए धारण करते हैं, और पहनते हैं) कह कर उन सब वस्त्रपात्रादि धर्मोपकरणों को 'न सो परिग्गहो वुत्तो' कह कर परिग्रह मानने से सर्वथा इन्कार किया है। यहाँ भी इनको परिग्रहत्वदोष से रहित बताने के लिए वे कहते हैं'एवं पि य संजमस्स उववूहणट्ठयाए वायायव-दंसमसगसीयपरिरक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं ।'
___ अर्थात् —ये सब परिगणित उपकरण भी संयम की वृद्धि या सहायता के लिए, हवा, धूप, डांस, मच्छर और सर्दी से रक्षा के लिए हैं, इन्हें राग-द्वेषरहित हो कर रखना चाहिए । और साथ ही इनके पास में रखने से, उनके उठाने-रखने में या देखभाल न होने की स्थिति में जीवों की हिंसा होने की संभावना है; अतः उक्त हिंसादोष से बचने के लिए शास्त्रकार ने इस सूत्रपाठ के साथ ही स्पष्ट कर दिया है-'संजएण णिच्चं पडिलेंहणपफ्फोडण - पमज्जणाए"""अप्पमत्तेण ....."सततं निक्खियव्वं च गिहियव्वं च .......' इसका आशय यह है कि संयमी साधु को इन उपकरणों के रखने के साथ-साथ सदा अप्रमत्त हो कर इनकी देखभाल (प्रतिलेखनादि द्वारा) रखना जरूरी है, इन्हें उठाते-रखते समय भी यतना रखना आवश्यक है । कहा भी है
'अज्झत्थविसोहिए उवगरणं बाहिरं परिहरंतो।
अपरिग्गहो ति भणिओ जिर्णोहिं तिलुक्कदंसोहि ॥' अर्थात्-"अध्यात्म:विशुद्धिपूर्वक बाह्य उपकरण रखने वाले साधु को त्रैलोक्यदर्शी तीर्थंकरों ने अपरिग्रही ही कहा है ।" वास्तव में शास्त्रकार ने इस पाठ के द्वारा संयमी साधु के संयम एवं जीवन दोनों की रक्षा की समस्या सुन्दर ढंग से हल कर
दी है।