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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
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हाँ, यदि बीमारी आदि में किसी दवा आदि की जरूरत पड़ जाय तो वह दिन में गृहस्थ के घर से ला कर दिन-दिन रख सकता है; रात्रि को नहीं ।
कुछ शंका-समाधान—यहाँ 'जंपिय ओदण... ." विधिमादिकं पणीयं'-इस सूत्रपाठ में 'मज्ज-मंस' शब्द आया है; साधु तो मद्य-मांस-सेवन के पूर्ण त्यागी होते हैं; वे सेवन करना तो दूर रहा, इन्हें ग्रहण भी नही करते। फिर यहाँ इस निषेधात्मक सूत्रपाठ में मद्य-मांस के संग्रह का निषेध करने की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि साधु मद्यमांस का त्यागी होता है, लेकिन भिक्षाटन करतेकरते कदाचित् ऐसे गृहस्थ के यहाँ अजाने पहुंच जाय, जो मांसादि अभक्ष्य पदार्थ सेवन करता हो; वह गृहस्थ भक्तिवश अन्य भक्ष्य पदार्थ की भांति उक्त पदार्थ को भी साधु के पात्र में डाल दे; तब साधु अन्य पदार्थ की भांति उनका उपाश्रय आदि में संग्रह न करे, अपि तु तत्काल दाता गृहस्थ को लौटा दे, यदि वह न ले तो परिष्ठापन कर दे। इसे स्पष्ट करने के लिए यहाँ मद्यमांस का उल्लेख किया है।
वैसे साधु के लिए तो क्या, प्रत्येक मनुष्य के लिए, खासतौर से आर्य पुरुषों के लिए जैनशास्त्र में मद्य और मांस के सेवन का सर्वथा निषेध है। नीचे हम कुछ शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत करते हैं
ज्ञातासूत्र के १६ वें अध्याय में समस्त प्राणियों का आहार ७ प्रकार का बताया है-'विउलं असणं पाणं साइमं खाइमं सुरं च मज्जं च मंसं च ।' उनमें से मनुष्यों का आहार सिर्फ चार प्रकार का बताया है'मणुस्साणं चउठिवहे आहारे पणत, त० असणे जाव खातिमे ।
(-ठाणांग सूत्र ठा-४ उ-४) अर्थात्-'मनुष्यों का आहार चार प्रकार का बताया है-अशन, पान, स्वादिम और खादिम ।'
_ इससे स्पष्ट है कि आगम में मद्यमांस को मनुष्यों का आहार नहीं बताया है। मनुष्य मात्र के लिए उनके सेवन का निषेध है । फिर मांसभक्षण करने से नरकायु का बंध होना स्थानांग सूत्र के चौथे स्थान में बताया है
'चउहि ठाणेहि जीवा रतियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा—'महारंभताते, महापरिग्गहत्ताए, पंचिदिय-वहेणं, कुणिमाहारेणी' ___अर्थात् – चार कारणों से मनुष्य नारक बनने के लिए आयुष्यकर्म का बन्ध करता