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________________ ६०० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र न कप्पति तारिसे वि तह अप्पणो परस्स वा....तंपि संनिहिकयं ।' इसका आशय भी यह है कि कैसी भी रोगातंक की या मरणासन्नता की स्थिति हो, वातपित्त कफादि प्रकोप से अनेक रोग, यहाँ तक कि सन्निपात भी हो जाय या सारे शरीर में असह्य पीड़ा पैदा हो जाय, कर्मों के तीव्र उदय से मरणान्त कष्ट पैदा हो जाय, तो भी साधु को अपने या दूसरे के लिए औषध, भैषज्य या भोजनपान का संचय करके रखना उचित नहीं है । अपरिग्रही के लिए कैसा आहार ग्राह्य है ? अन्त में, शास्त्रकार स्वयं इस गुत्थी को सुलझाने के लिए निम्नोक्त पंक्तियाँ देते हैं-'जं तं एक्कारसपिंडवायसुद्ध .....'नवकोडीहिं सुपरिसुद्ध ...... फासुकेण भिक्खेण वट्टियव्वं ।' इन सूत्र पंक्तियों का अर्थ पदान्वयार्थ तथा मूलार्थ में हम स्पष्ट कर चुके हैं । तात्पर्य यह है कि भिक्षाविधि के या आहार-ग्रहण सेवन के जो दोष पहले अहिंसासंवर के प्रकरण में बता चुके हैं, उन तमाम दोषों से रहित, नवकोटिशुद्ध तथा अंगार-धूम-संयोजनादि दोषों से मुक्त, प्रासुक, एषणीय तथा छह काय के जीवों की रक्षा के लिए शास्त्रोक्त ६ कारणों से लिया गया शुद्ध आहार ही साधु के लिए ग्राह्य है। प्रासुक भिक्षा पर ही साधु को जीवन निर्वाह करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि साघु का जीवन सर्वसंपत्करी भिक्षा पर निर्भर है । भिक्षा की जो विधि शास्त्र में बताई गई है, उसी के अनुसार निर्दोष आहारादि ग्रहण करने पर अहिंसा की भी रक्षा हो जाती है, अपरिग्रह व्रत की भी रक्षा हो जाती है और संयम का भी शुद्ध रूप से पालन हो जाता है, शरीर भी टिकाया जा सकता है । शास्त्र में साधु के लिए ६ कारणों से आहार-सेवन करना विहित है-- १'क्षुधावेदना को मिटाने के लिए, सेवा (वैयावृत्य) कर सके, इसके लिए, ईर्या-शोधन कर सकने के लिए, संयम पालन करने के लिए, प्राणों की रक्षा के लिए और धर्माराधना या धर्म चिन्तन के लिए।' अतः धर्मवीर साँधु को सदा यह चिन्तन करना चाहिए कि मुझं केवल अपने शरीर को पुष्ट करने के लिए ही आहार नहीं लेना है, न इन्द्रिय विषयों के आसक्ति पूर्वक सेवन के लिए लेना है और न ही जिह्वालालसा को शान्त करने के लिए आहारादि लेना है। अपरिग्रह की दृष्टि से न तो मुनि को सचित्त वस्तुएं ग्रहण करना है और न अचित्त वस्तुओं को भी संग्रह करके अपने पास रखना है। १ देखिये वह गाथा 'वेयण-वेयावच्चे ईरियट्ठाए' य संजमट्ठाए। तह पाणवत्तियाए छठें पुण धमचिंताए ।' -संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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