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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
७६६ आकाशवृत्ति-निसर्ग निर्भरता नहीं रहेगी । वह बात-बात में संग्रह करने को लालायित हो जायगा। उसे यह विश्वास नहीं रहेगा कि कल मुझे आहार मिलेगा या नहीं ? इस प्रकार अपरिग्रहवृत्ति पर उसका विश्वास डगमगा जाएगा।
इन सब कारणों को लेकर साधु को कल्पनीय अचित्त वस्तुओं का भी दूसरे दिन के लिए संग्रह करने का निषेध किया है। इसीलिए दशवकालिक सूत्र में अपरिग्रही साधु के लिए ऐसा स्पष्ट विधान है
बिडमुन्भेइमं लोणं तिल्लं सप्पि च फाणियं ।
ण ते सन्निहिमिच्छंति नायपुत्तवओरया ॥' अर्थात्-जो ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर के वचनों के श्रद्धालु अपरिग्रही साधु हैं, वे दोनों प्रकार के नमक, तिल, घी, तिलपपडी आदि अचित्त वस्तुएं भी संग्रह करना नहीं चाहते।
__ उद्दिष्ट, स्थापित आदि दोषयुक्त आहार भी श्रमण के लिए वर्जित-अब सवाल यह होता है कि जब साधु को आपत्काल के लिए भी अचित्त भोज्य पदार्थों के संग्रह करने से इन्कार कर दिया है, तब वह ऐसे मौके पर जबकि आहार सुलभ न हो, तब श्रद्धालु भक्त द्वार। साधु के लिए बनाया हुआ, उसी के निमित्त रखा हुआ, खरीदा हुआ या पहले या पीछे दाता की प्रशंसा करने से प्राप्त होने वाला या अपनी विशेषतामों की अधिक डींगें हांकने से प्राप्त होने वाला अथवा किसी से जबर्दस्ती छीनकर दिया गया, या दूसरे के अधिकार का उसकी अनुमति के बिना किसी दूसरे से दिया गया, या सामने लाकर दिया गया, अथवा उधार लेकर दिया जाने वाला, दीपक जलाकर दिया गया, भेंट के रूप में दिया गया, बौद्धभिक्षुओं या याचकों के लिए बनाए गए आहार में से दिया जाने वाला, या दान-पुण्य की दृष्टि से बनाया गया आहार, अथवा एक ही श्रद्धालु दाता के घर से रोजाना लिया जाने वाला आहार या गृहस्थ के यहाँ रखे हुए आहार में से स्वयमेव ग्रहण किया हुआ आहार अथवा तिथियों, यज्ञों, उत्सवों, पर्वो पर उपाश्रय के अन्दर या बाहर साधु के लिए खास तौर से रखा गया आहार ले या नहीं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार स्पष्ट इन्कार करते हैं—'जंपिय उद्दिट्ठ-ठविय-रचिय ..."ठवियं हिंसासावज्जसंपउत्तं न कप्पति तं पि य परिघत्त ।' संक्षप' में आशय यह है कि पूर्वोक्त दोषों से युक्त दिया गया आहार भी हिंसा और सावद्यकर्मों से लिप्त होने के कारण अपरिग्रही श्रमण को लेना उचित नहीं है । इसके आगे संग्रह करने का पुनः स्पष्ट निषेध शास्त्रकार करते हैं—'जपि य समणस्स सुविहियस्स उ रोगायंके ....."सव्वसरीरपरितावणकरे