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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र रोग, बीमारी, आतंक या आकस्मिक भोजन का अभाव आदि के संकट की समस्या के समाधान के लिए सीधा मार्ग भिक्षावृत्ति का महापुरुषों ने बताया ही है । ऐसे समय में तो कोई न कोई श्रद्धालु श्रावक औषध या पथ्ययुक्त आहार के दान से साधु की सेवा करके अपने को धन्य मानता है। फिर भी कोई आकस्मिक संकट आजाए तो साधु को धीरता पूर्वक उसका सामना तपोबल से करना चाहिए। परिषह सहन करने में ही उसकी वीरता है। विधि पूर्वक भिक्षा के द्वारा जो भी वस्तु प्राप्त हो जाय, उसी में संतुष्ट रहने में ही साधु जीवन की शोभा है। ___अब रही ऐसी चीजें, जो गृहस्थ ने अपने लिए बनाई हैं, अचित्त हैं, साधु के लिए आहार के रूप में ग्राह्य हैं और उन्हें कोई श्रद्धालु गृहस्थ साधु के उपाश्रय (धर्म स्थान) में या धर्मस्थान के सिवाय किसी दूसरे मकान में या कहीं जंगल में साधु के लिए रखना चाहता है या रखने के लिए देना चाहता है, जैसे कि भात, दाल, सत्तू, तिलपिट्ठो, बेर आदि का आटा, सेके या भुने हुए चने आदि अनाज, पूड़ी, दहीबड़े, श्रीखंड, खीर, दूध, दही, घी, तेल, गुड, खांड, मिश्री, शहद आदि चीजें । क्या साधु इन चीजों को ले ले या अपने पास संग्रह करके रख ले ? इसका स्पष्ट निषेध करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-'न कप्पति तंपि सन्निहिं काउंसुविहियाणं' यानी ये अचित्त और कल्पनीय चीजें भी सुविहित साधुओं को संग्रह करके अपने पास रखनी या रखानी कल्पनीय-उचित नहीं हैं । इस निषेध के पीछे एक कारण तो यह है कि साधु रात्रि को खाने-पीने की कोई भी चीज अपने पास नहीं रख सकता है और न कहीं अपने लिए रखवा सकता है। इसलिए संग्रह करके रखने पर उसे परिग्रह दोष लगेगा। दूसरा कारण यह है कि साधु परिव्राजक है, उसे कहीं एक जगह जम कर रहना भी नहीं है, इसलिए वहाँ से अन्यत्र विहार करने पर उन संगृहीत चीजों की चिन्ता उसे करनी पड़ेगी। या मान लो, कोई अत्यन्त वृद्ध या अशक्त होने से एक जगह स्थिरवास हो जाय तो भी उसे उन संगृहीत चीजों की बार-बार चिन्ता और देखभाल करनी होगी तथा उनमें कोई जीवजन्तु पड़ जायेंगे तो उनकी विराधना भी होगी। फिर संग्रह करने की वृत्ति होने पर साधु उसी जगह मोहवश कोई न कोई बहाना बना कर रहने लगेगा । उसकी संयमशील वृत्ति में मोह भयंकर बाधा पहुंचाएगा। तोसरा कारण यह भी है कि फिर वह आलस्यवश भिक्षा के लिए नहीं जाएगा और रात्रिभोजन का त्याग होते हुए भी मोहवश उन चीजों में से कदाचित् कुछ सेवन भी करलेगा । यह भी उसके लिए व्रतभंग का दोष होगा । चौथा कारण यह भी है कि फिर साधु अपने किसी श्रद्धालु भक्त को उसमें से देने भी लगजाय या विक्रय करने की वृत्ति आजाय । यह भी बहुत बड़ा खतरा है, उसके साधु जीवन के लिए। एक कारण यह भी है कि साधु के जीवन में फिर अपरिग्रह वृत्ति या
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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