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________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर ७६३ षाय और अशुभयोग से पैदा होती हैं। इसलिए ये चारों अन्तरंग परिग्रह के कारण होने से एक प्रकार से अन्तरंग परिग्रह रूप ही हैं। इसी प्रकार स्त्रीविकथा, भक्तविकथा, राजविकथा और देशविकथा; ये चारों विकथाएँ वेदादिरूप नोकषाय के उदय से होती हैं; इसलिए अन्तरंग परिग्रह के ही अन्तर्गत हैं । . पंच य किरियाओ समितिइंदियमहन्वयाइं च - पांच क्रियाएं हैं—कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी । जीव की प्रवृत्तिविशेष को क्रिया कहते हैं। क्रिया से कर्मों का ग्रहण होता है और कर्मों का ग्रहण अन्तरंग परिग्रह है। इसलिए क्रियाएँ भी अन्तरंग परिग्रह की कार्यरूप हैं। सम्यक् प्रकार से निरवद्य प्रवृत्ति करना समिति है । वह भी पांच प्रकार की है ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति आदान निक्षेपसमिति और पारिष्ठापनिका समिति । ये पांचों समितियाँ अविरति या प्रमादरूप अन्तरंग परिग्रह को मिटाने तथा अपरिग्रहत्व भाव में प्रवृत्त करने की कारण होने से उपादेय हैं। पांच इन्द्रियाँ हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । इन पांचों का निग्रह न करना अन्तरंग परिग्रह है। इसी प्रकार • पांच महाव्रत हैं—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । ये पांचों अव्रतरूप अन्तरंग परिग्रह को रोकने में मूलभूत कारण हैं, इसलिए ये अपरिग्रहत्व के लिए उपादेय हैं । महाव्रतों का अभाव या दोष परिग्रह है। छज्जीवनिकाया छच्च लेसाओ छह जीवनिकाय हैं-पृथ्वी काय आदि । ये अपने आप में जेय हैं। इनका असंयम करना अन्तरंग परिग्रह है तथा इन पर संयम करना आन्तरिक परिग्रह का निरोध-अपरिग्रह है। इसी प्रकार ६ लेश्याएं हैं - कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । कषायोदयसहित जो मन-वचन-काया की प्रवृत्ति होती है, उसे लेश्या कहते हैं। इनमें से प्रथम की तीन लेश्याएं अप्रशस्त हैं और बाद की तीन लेश्या प्रशस्त हैं। लेश्याएं कषाय रूप अन्तरग परिग्रह के कारण होने से अन्तरंग परिग्रह में ही शुमार हैं।। सत्त भया - सातभय हैं - इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्माद्भय, आजीविकाभय, मरणभय और अपयशभय । इनका वर्णन पहले किया जा चुका है। भय नोकषाय मोहनीय के उदय से होता है, जो कि अन्तरंग परिग्रह का ही एक अंग है। अट्ट य मया---'मद आठ हैं—जाति का मद, कुल का मद, बल का मद, रूप का मद, तप का मद, ऐश्वर्य (प्रभुता) का मद, ज्ञान का मद और लाभ का मद । मानकषाय के अन्तर्गत होने से अन्तरंग परिग्रह के ही अंग हैं। १-मद के विषय में यह गाथा प्रस्तुत है 'जाईकुल बलरूवे, तवईसरिए सुए लाभे ।' -संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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