________________
७६२
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
इसलिए शास्त्रकार ने असंयम को अन्तरंग परिग्रह कहा है । अथवा दूसरी दृष्टि से देखें तो आत्मा का अपने शुद्धस्वरूप में लीन रहना संयम है और अपने शुद्धस्वरूप से पृथक् होकर बाह्य पदार्थों में प्रवृत्ति करना असंयम है । इस प्रकार असंयम का लक्षण करने से समस्त अन्तरंग परिग्रहों का समावेश असंयम में हो जाता है । अतः असंयम की अपेक्षा से परिग्रह एक प्रकार का सिद्ध होता है ।
दो चैव रागदोसा - इसका तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्वादि जितने भी अन्तरंग परिग्रह के भेद बताये गये हैं, वे सब राग और द्वेष के ही परिवार हैं। रागद्वेष के क्षय हो जाने पर उन सबका क्षय हो जाता है । और रागद्वेष के होने पर उनकी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार रागद्वेष कारण हैं और मिथ्यात्व आदि सब अन्तरंग परिग्रह उसके कार्य हैं । इसी बात को ध्वनित करने के लिए राग और द्व ेष के रूप में परिग्रह के दो भेद बताये हैं ।
तिन्निय दंडगारवा य गुत्तीओ तिन्नि तिन्नि य विराहणाओं-तीन दण्ड हैं - मनदण्ड, वचनदण्ड और काय दण्ड । जिन ( मन वचनकाया) की दुष्प्रवृत्ति के कारण आत्मा दण्डित होती हो, उसे दण्ड कहते हैं। तीनों दंड भी परिग्रहरूप इसलिए हैं कि मन-वचन काया की दुष्प्रवृत्ति का ग्रहण परिग्रह के कारण होता है, इसलिए दंड
अन्तरंग परिग्रह का कार्य है । इसी प्रकार गौरव अर्थात् गर्व भी तीन हैं - ऋद्धिगर्व, रसगर्व और सातागर्व । इन्द्रियों के अनुकूल भोजनपान तथा अन्य सुख वैभव-सामग्री मिलने पर आत्मा में बड़प्पन का भान होना गौरव या गर्व कहलाता है। इस प्रकार का गर्व भी अन्तरंग परिग्रह के कारण होता है, इसलिए गर्व भी अन्तरंग परिग्रह है । नवचन काया को पापजनक क्रियाओं से बचाना - रोककर रखना गुप्ति है; जो तीन प्रकार की है । अगुप्ति अन्तरंग परिग्रह है और गुप्ति उससे बचने का साधन है । इसी प्रकार तीन विराधनाएँ है ज्ञानविराधना, दर्शन विराधना और चारित्र विराधना I ये तीनों विराधनाएँ भी मिथ्यात्व आदि अन्तरंग - परिग्रह के कारण होती हैं, इसलिए ये भी अन्तरंग परिग्रह के रूप हैं ।
चत्तारि कसाया झाण- सन्ना-विकहा तहा य हुंति चउरो-चार कषाय हैंक्रोध, मान, माया और लोभ । ये चारों कषाय तो अन्तरंग परिग्रह में हैं ही, यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है । चार प्रकार के ध्यान हैं - आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान । इन चार ध्यानों में से आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान, ये दो ध्यान अन्तरंग परिग्रह रूप और हेय ( त्याज्य ) हैं ; तथा धर्म ध्यान और शुक्लध्यान ये दोनों आत्मा को अन्तरंग परिग्रह के चिन्तन से हटाकर निजस्वरूप या आत्मगुणचिन्तन रूप अपरिग्रह वृत्ति में स्थिर करने वाले हैं। इसलिए उपादेय हैं। आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा; ये चार संज्ञाएँ -- वासनाएं हैं; जो प्रमाद, कपाय, नोक