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________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर ७६१ वश कुछ का सर्वांशतः त्याग न होने पर भी वे उसके मुनिपद में बाधक नहीं बनते । शास्त्रीय दृष्टि से अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणीय तथा प्रत्याख्यानावरणीय क्रोधादि कषाय का मुनिजीवन में सर्वथा अभाव होने पर भी संज्वलनक्रोधादि का उदय रहता है । यानी संज्वलन क्रोध, मान और माया अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान तक रहते हैं तथा संज्वलनलोभ दसवें गुणस्थान तक रहता है। - दूसरी दृष्टि से विचार करें तो अन्तरंग परिग्रह के ५ भेद भी हैं-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, ३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) अशुभयोग-मनवचनकाया की दुष्प्रवृत्ति । इन्हें आभ्यन्तर परिग्रह इसलिए माना गया कि ये पांचों कर्मबन्ध के कारण हैं, और कर्म भी एक प्रकार से परिग्रह है। इसलिए ये पांचों अन्तरंगपरिग्रहरूप हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में कर्मग्रहण करने को परिग्रह और बंध बताया है-- 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्त, स बन्धः ।' अर्थात् -- 'कषायसहित होने से जीव परिणामों के अनुसार तद्योग्य कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है और वही बन्ध है ।' दोनों प्रकार के परिग्रहों का विश्लेषण करने वाली निम्नोक्त गाथा भी प्रमाणरूप में प्रस्तुत है 'पुढवाइसु आरंभो परिग्गहो धम्मसाहणं मोत्त । मुच्छा य तत्थ बज्झो इयरो मिच्छत्तमाइयो ।' अर्थात् -- पृथ्वीकायादि जीवों का आरम्भ (हिंसा) करना परिग्रह है। धर्म के साधनभूत (ज्ञानोपकरण और संयमोपकरण) पदार्थों के अतिरिक्त अन्य पदार्थों को मूर्छा-ममतावश रखना बाह्यपरिग्रह है, जबकि मिथ्यात्व आदि अन्तरंग परिग्रह हैं। ___ चूकि साधु बाह्यपरिग्रह तो त्याग चुका है, इसलिए उसके सामने अन्तरंग परिग्रह का त्याग करने की ही बात मुख्यतया रहती है । इसी दृष्टि से शास्त्रकार ने सर्वप्रथम आभ्यन्तर परिग्रह के त्याग की चर्चा छेड़ी है। और आभ्यन्तर परिग्रह के लिए असंयम नामक प्रथम बोल से लेकर ३३ तक के बोलों का विवेक करना साधु के लिए अतीव आवश्यक बताया है। उसी आभ्यन्तर परिग्रह को शास्त्रकार विस्तृत रूप में प्रस्तुत करते हैं-'एगे असंजमे "तित्तीसा आसातणा सुरिंदा आदि ।' नीचे हम इन सब बोलों का क्रमश: विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे । एगे असंजमे-- इसका आशय यह है कि संयम आत्मा का स्वभाव है। वह पांचों इन्द्रियों एवं मन को वश में करने पर तथा षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग करने पर होता है। इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयम इन दोनों प्रकार के संयम के अभाव रूप असंयम से आत्मा प्रतिसमय कर्मपरिग्रह का ग्रहण करता रहता है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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