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________________ ७६० .. श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र बैठा फुफकारता रहता है, माया रूपी राक्षसी उसके अन्तःकरण के रंगमंच पर तांडव नृत्य करती रहती है, लोभरूपी पिशाच उसके चित्तरूपी मैदान में खुलकर खेलता रहता है, मोहरूपी अजगर उसके सम्यक्त्व और चारित्ररूपी दो फेफड़ों को निगलता रहता है, राग और द्वेषरूपी. असुर उसके आत्मगुणरूपी रक्त को पीते रहते हैं, आसक्ति और मूर्छारूपी व्याघ्री जीभ लपलपाती उसकी अपरिग्रहवृत्ति रूपी देह को खाने के लिए तैयार बैठी रहती हैं, मिथ्यात्वरूपी शत्रु उसके सम्यक्त्व पर हमला करने को उद्यत रहता है और हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का भान भुला देता है, हास्यरूपी कुत्ता उसके वचनसंयमरूपी अंग पर झपटने को तैयार रहता है, भयरूपी बाज उसकी निर्भयतारूपी बुद्धि पर झपट्टा मारता रहता है, रति-अरतिरूपी दो चुहिया उसकी मेधाशक्ति को काटने के लिए प्रयत्नशील रहती हैं, शोकरूपी बिडाल उसके अन्तर में हाहाकार मचाता रहता है, त्रिवेदरूपी तीन काम-दानव साधक के मनवचनकायारूप त्रियोगों पर धावा बोलते रहते हैं। विषय रूपी धीमा विष उसकी जीवनीशक्ति का ह्रास करता रहता है। मतलब यह है कि साधु बाहर से अपरिग्रही दिखता हुआ भी अगर असावधान रहता है तो वह अन्दर में१४ प्रकार के अंतरंग परिग्रहों से घिरा रहता है । कई बार उसे पता भी नहीं होता कि ये अंतरंगपरिग्रह किस प्रकार उसके संयमधन का हरण करते रहते हैं । इसलिए साधक को इस बात से भली भांति सावधान करने के लिए शास्त्रकार विस्तार से एक बोल से लेकर तेतीस बोल तक के अंदर निहित तत्त्वों को स्पष्ट करते हैं, जिसे वे अन्तरंगपरिग्रह का ही विस्तृतरूप मानते हैं। और इन तेतीस बोलों में से हेय, ज्ञय और उपादेय का विवेक करके साधक को ज्ञपरिज्ञा से आभ्यन्तरपरिग्रह को जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका त्याग करना चाहिए और अपने अपरिग्रहीरूप को बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार से परिपूर्ण बनाना चाहिए। इसीलिए सर्वप्रथम शास्त्रकार अपरिग्रही साधु का लक्षण संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं—'अपरिग्गहसंवुडे य समणे आरंभपरिग्गहातो बिरते, विरते कोहमाणमायालोभा।' इसका आशय यह है कि आरम्भ और बाह्यपरिग्रह से सर्वथा मुक्त होने पर भी जब भिक्षु क्रोध, मान, माया और लोभरूपी आन्तरिक पहिग्रह को मन से त्याग देता है, इन्द्रियविषयों और कषायों को रोक देता है, तभी वह पूर्ण रूप से अपरिग्रहनिष्ठ साधु कहलाता है। वैसे देखा जाय तो साधुओं के लिए बाह्यपरिग्रह के साथ-साथ आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना भी अनिवार्य बताया है। परिवार-गृह-धनत्यागी साधु ज्ञानदर्शनचारित्ररूप धर्म के पालन के लिए शास्त्र में बताए हुए धर्मोपकरणों के सिवाय शेष दस प्रकार के बाह्यपरिग्रह का तो सर्वथा त्याग करते हैं, मगर पूर्वोक्त १४ अंतरंगपरिग्रहों में से मिथ्यात्व आदि कुछ का तो सर्वथा ही त्याग करते हैं, किन्तु मोहोदय
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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