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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह - संवर
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देव हैं। पांच महाव्रतों की २५ भावनाएं हैं । २६ उद्दशनकाल हैं । अनगारों के २७ गुण हैं । २८ प्रकार का आचार प्रकल्प है । २६ प्रकार के पापश्रुत हैं । महामोहनीय कर्म के ३० स्थान - कारण हैं । सिद्धों के प्रधान अथवा आदि से ही ३१ गुण हैं । ३२ योग संग्रह हैं । और बत्तीस देवेन्द्र हैं । तेतीस प्रकार की आशातनाएँ हैं । इनमें से प्रारम्भ को जो एक आदि संख्या बढ़ाते जाने से तीन अधिक तीस यानी ३३ संख्या पर्यंत के स्थानों में, हिंसा आदि महा पापों से निवृत्ति तथा विशिष्ट एकाग्रता में, अविरतियों में तथा ऐसे ही और भी बहुत से जिनेन्द्रदेवों द्वारा उपदिष्ट नित्यस्वरूप, अतएव अवस्थित और सत्यभूत पदार्थों में शंका और कांक्षा न करके जो देवेन्द्रों आदि के भोगों या ऐश्वर्य सुखों का निदान - वांछा नहीं करता, ऋद्धि आदि के गौरव (गर्व ) से रहित है, लम्पटता से मुक्त है, मूढ़ता से रहित है तथा मन-वचन काया को वश में रखता हुआ भगवान् महावीर के शासन ( आज्ञा या आगम ) पर श्रद्धा करता है, वही साधु परित्यागी होता है ।
व्याख्या
नौवें अध्ययन में ब्रह्मचर्य का सांगोपांग निरूपण करने के बाद अब दसवें अध्ययन में परिग्रह विरमणरूप अपरिग्रह संवर के सम्बन्ध में शास्त्रकार निरूपण करते हैं ।
अन्तरंग परिग्रह का ही सर्वप्रथम वर्णन क्यों ?
पहले बताया जा चुका है, किपरिग्रह केवल सोना-चांदी, मकान, वस्त्र, पात्र आदि बाह्यरूप ही नहीं है, अपितु परिग्रह का एक अंतरंग रूप भी है, जो बाह्य परिग्रह से कई गुना भयंकर है । वस्तुतः परिग्रह का जन्म ही अन्तर्मन से होता है । इसलिए बाह्य परिग्रह तो अन्तरंग परिग्रह का निमित्त कारण होने से ही परिग्रह कहा गया है । साधु जब मुनिदीक्षा लेते समय अपरिग्रह महाव्रत धारण करता है तब घरबार, कुटुम्वकबीला और जमीन जायदाद को तो छोड़ ही देता है । बाह्यपरिग्रह तो उसके पास नाम मात्र का भी नहीं रहता, संयमयात्रा के लिए जो धर्मोपकरण, शास्त्र आदि होते हैं, वह भी केवल उसके निश्राय की वस्तुएँ हैं, जिनका वह मूर्च्छारहित होकर उपयोग करता है । शास्त्रविहित धर्मोपकरण, यदि अममत्वभाव से रखे जाएँ, तो वे परिग्रह की कोटि में नहीं आते । अतः बाह्यरूप से अपरिग्रही बना हुआ साधु यह सोचता है कि मेरे पास परिग्रह तो कुछ भी है नहीं, मैं तो हलका फुलका हूं और त्यागी हूं, लेकिन ज्ञानी महापुरुषों की आंखों में वह अन्दर ही अन्दर अन्तरंगपरिग्रह के कारण बोझिल बना रहता है । उसके जीवन में क्रोध की ज्वाला जलती रहती है, अहंकार का सांप उसके अंतर्मानस में