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________________ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर ७२५ माना जाता है, वैसे ही सब व्रतादि में ब्रह्मचर्य उत्तम माना गया है। कमलपुष्प जैसे सब पुष्पों में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही यह सब में श्रेष्ठ है । समस्त चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन की तरह सब व्रतादि में यह श्लाघ्य है। हिमवान पर्वत जसे समस्त औषधियों का उत्पत्तिस्थान है, वैसे ही यह समस्त गुणों का उत्पत्तिस्थान है। जैसे सब नदियों में सीतोदा नदी बड़ी है, वैसे ही सब व्रतादि में यह बड़ा है। जैसे स्वयम्भूरमण समुद्र सब समुद्रों में विशाल है, वैसे ही ब्रह्मचर्य सब में विशाल है। जैसे वलयाकार (गोल) माण्डलिक पर्वतों में रुचकवर पर्वत महान है, वैसे ही सब व्रतादि में यह महान् है। यह हाथियों में ऐरावत हाथी के समान प्रशस्त, वन्यपशुओं में सिंह के समान तेजस्वी, सुपर्णकुमारों में वेणुदेव इन्द्र के समान सर्वोपरि, नागकुमार देवों में धरणेन्द्र देव के समान प्रभावशाली, देवलोक में ब्रह्मलोक के समान महत्त्वपूर्ण, भवनपति और वैमानिक देवों की सभाओं में सुधर्मा सभा की तरह उत्कृष्ट, स्थितियों में लवसप्तम नामक अनुत्तर विमानवासी देवों की स्थिति की तरह प्रवर; आहार, औषध, ज्ञान, धर्मोपकरण एवं अभयदान, इन पांचों प्रकार के दानों में अभयदान के समान प्रधान वह ब्रह्मचर्य महाव्रत है। कंबलों में किरमची रंग के कम्बल की तरह व्रतों में ब्रह्मचर्य उत्तम है। वज्र-ऋषभनाराच आदि' संहननों में वज्र-ऋषभनाराच संहनन की तरह, सब व्रतों में ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट माना गया है। इसी प्रकार समचतुरस्र आदि संस्थानों में जैसे समचतुरस्र संस्थान उत्तम १–शरीर के अस्थि आदि के बन्धनविशेष को संहनन कहते हैं। वह ६ प्रकार का है- (१) वज्रऋषभनाराच, (२) ऋषभनाराच, (३) नाराच, (४) अर्घनाराच, (५) कोलिक और (६) असंप्राप्त सृपाटिका संहनन । जिसमें हड्डी और उसका वेष्टन वज्रमय होता है, वह वज्रऋषभनाराच है। जिसमें अस्थि ही वज्रमय हो, वेष्टन साधारण हो, वह वज्रनाराच है। जिसमें शरीर की सन्धियों में हड्डी की कील हो; वह नाराच है। जिसमें आधी हड्डी की कील हो, वह अर्धनाराच है। जिसमें संधि की हड़ियां नसों से ढंकी हुई हों, वह वोलिक है । और जिसमें सब हड्डियां अलग-अलग हों, नसों से बंधी हुई न हों, उसे असंप्राप्त सृपा. टिका संहनन कहते हैं। २-शरीर की आकृति को संस्थान कहते हैं। वे ६ हैं--(१) समचतुरस्र, (२. स्वाति, (३) न्यग्रोधपरिमंडल, (४) कुब्जक, (५) वामन और (६) हुंडक संस्थान । यथायोग्य सुन्दर समचोरस आकार को समचुतरत्र, ऊपर से पतले और नीचे से मोटे शरीराकार को स्वाति, बड़ के पेड़ के समान शरीर के ऊपर के अवयव मोटे, नीचे के पतले हों उसे न्यग्रोधपरिमंडल, कुबड़े शरीर के आकार को कुब्जक, बौने कदके शरीर को वामन और शरीर के हाथ पैर आदि सब अवयव बेडौल बदसूरत हों उस संस्थान को हुंडक संस्थान कहते हैं ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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