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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र स्कन्ध के नष्ट होते नष्ट होते ही अनेक । तथा ब्रह्मचर्य महा अवश्यम्भावी है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्यरूपी नाभि की रक्षा से चारित्र धर्मरूपी आरों की रक्षा और ब्रह्मचर्य के नाश से चारित्र धर्म का नाश अवश्यम्भावी है । इसी तरह ब्रह्मचर्य धर्मरूपी वृक्ष को धारण करने में स्कन्धरूप है । जैसे बड़ी बड़ी शाखाओं वाले वृक्ष का आधार स्कन्ध होता है, ही वृक्ष नष्ट हो जाता है; उसी प्रकार ब्रह्मचर्यरूपी स्कन्ध के अंगों (शाखाओं) वाले धर्मरूपी वृक्ष का टिकना भी असंभव है नगररूपी धर्म की रक्षा के लिए उसके कोट और आगल के समान है । इन्द्रध्वज जैसे चारों ओर रस्सी से बंधा होने पर ही मजबूत रहता है, वैसे ही धर्मरूपी इन्द्रध्वज भी अनेक विशुद्ध गुणों से युक्त ब्रह्मचर्यरूपी रस्सी से बंधा हुआ होने से ही मजबूत है । ब्रह्मचर्य के भंग होने पर विनय, शील, तप, नियम आदि समस्त गुणसमूह उसी तरह चूर-चूर हो जाते हैं, जैसे मिट्टी का घड़ा ऊपर से गिरने पर चूरचूर हो जाता है, उसी तरह मसल जाते हैं, उसी तरह पिस जाते हैं, जैसे चना पिस अन्दर घुसे हुए बाण से शरीर विध जाता चकनाचूर हो जाते हैं, महल से गिरे कलश के समान वे एक दम नीचे आ गिरते हैं, लकड़ी के डंडे के समान तड़ातड़ टूट जाते हैं, कोढ़ आदि व्याधि से सड़े हुए शरीर के समान वे गुण समूह सड़ जाते हैं, आग में स्वाहा हुए लक्कड़ के समान वे गुण-गण अस्तित्वहीन हो जाते हैं । जैसे मथने से दही मसला जाता है, जाता है, उसी तरह बिंध जाते हैं, जैसे पर्वत से गिरी हुई चट्टान की तरह वे है; ७२४ afan क्या कहें ! एक ब्रह्मचर्यव्रत के होने पर सभी गुण उसके अधीन हो जाते हैं । इस ब्रह्मचर्यव्रत की आराधना करने पर निर्ग्रन्थ प्रव्रज्यारूप मुनिधर्म के सभी व्रतों की आराधना हो जाती है; क्या शील, क्या तप, क्या विनय, क्या संयम; यहाँ तक कि क्षमा, मुक्ति - निर्लोभता, गुप्ति, इहलौकिक तथा पारलौकिक यश, कीर्ति और जनविश्वास तक आराधित- अर्जित हो जाते हैं । इतना महत्त्व है, इस ब्रह्मचर्य महाव्रत का ! विविध उपमाओं से ब्रह्मचर्य की गरिमा - ब्रह्मचर्य की गरिमा बताने के लिए शास्त्रकार विविध उपमाएँ देते हैं 'तं बंभं भगवंतं गहगण महारहगते ।' इन सबका आशय यह है कि - ' वह ब्रह्मचर्य विभूतिशाली भगवान है । वह ग्रहों, नक्षत्रों और ताराओं के बीच में चन्द्रमा के समान देदीप्यमान है । जैसे चन्द्रकान्तादि मणियों, मोतियों, मूंगों और पद्म - रागादि लाल रत्नों की खान समुद्र है, वैसे हो समस्त गुण रत्नों की खान ब्रह्मचर्य है । जैसे सब मणियों में वैडूर्यमणि उत्कृष्ट है, वैसे ही व्रतादि में ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट है । जैसे सब आभूषणों में मुकुट प्रधान माना गया है, सब प्रकार के वस्त्रों में बारीक और मुलायम कपास का वस्त्र उत्तम
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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