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________________ ७१६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र और मनोबल सर्वप्रथम आवश्यक है। बिना मनोबल के वह क्या खाक तप करेगा और बिना शरीरबल के वह उसे कहाँ तक पार लगाएगा ? और जितनी भी शक्तियाँ हैं, वे सब ब्रह्मचर्य से प्राप्त होती हैं । इसलिए ब्रह्मचर्य को तप का मूल बताया है। सूत्रकृतांगसूत्र में वीरस्तुति करते हुए कहा है 'तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं'। अर्थात्--'तपस्याओं में सबसे उत्तम तप ब्रह्मचर्य है।' आभ्यन्तर तप के लिए भी मनोबल और आत्मबल दोनों की आवश्यकता है। अब लीजिए नियम को । अमुक काल की मर्यादापूर्वक जो प्रतिज्ञा ली जाती है; उसे नियम कहते हैं । अभिग्रह, पिंड-विशुद्धि, पौरुषी आदि के प्रत्याख्यान या किसी भी वस्तु का त्याग करना, नियम कहलाता है। किसी भी नियम के पालन करने के लिए मनोबल और शरीरबल सबसे पहले आवश्यक है। अन्यथा, वह नियम टूट जायगा या नियम में से छिटकने के लिए व्यक्ति कोई रास्ता ढूढंगा। ___ इसी प्रकार ज्ञान (वस्तु का साकार प्रतिभास विशेष बोध) और दर्शन (निराकार प्रतिभास-सामान्य बोध) के उपार्जन के लिए भी स्मरणशक्ति की आवश्यकता है, बौद्धिक प्रतिभा की जरूरत है । ये दोनों उपलब्ध होती हैं-ब्रह्मचर्य से ही । इसलिए इन दोनों के मूल में भी ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है । चारित्र पालन के लिए मन-वचन-काया की विशुद्धि आवश्यक है । मन, वचन या काया में जरा भी विकार भाव आ जाता है, तो चारित्र खत्म हो जाता है । अत: चारित्र को टिकाए रखने में मूल कारण ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य से ही मन, वचन तथा काया की पवित्रता या शुद्धि रह सकती है । सम्यग्दर्शन भी वास्तव में आत्मिकबल पर निर्भर है, निरीक्षण-परीक्षणशक्ति पर ही टिका हुआ है। हेय और उपादेय का, सत्यासत्य का, कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय सम्यग्दर्शन हुए बिना नहीं हो सकता। सम्यग्दर्शन के अभाव में व्यक्ति सांसारिक पदार्थों तथा स्त्रीपुत्रादि सम्बन्धों के प्रति ज्यादा से ज्यादा गाढ़ आसक्ति रखता है ; जिससे मिथ्यादर्शन हो जाता है, जिसके कारण आत्मा नरकतिर्यंचगति में गमन करता है। ब्रह्मचर्य से ही आत्मिक, बौद्धिक, हार्दिक, विवेकीय एवं परीक्षण-निरीक्षणीय शक्तियाँ उपलब्ध होती हैं । इसलिए सम्यक्त्व का भी मूल ब्रह्मचर्य है । __ अब रहा विनय । विनय का आचरण करने के लिए भी शरीरादि का बल अपेक्षित है, जो ब्रह्मचर्य के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । इसलिए विनय का मूल भी ब्रह्मचर्य ही है। ___ निष्कर्प यह है कि ब्रह्मचर्य के होने पर ही उत्तम तप, नियम आदि का अस्तित्व है, अन्यथा नहीं।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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