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नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर
७१५ उसमें प्रवृत्त हो भी जायगा तो आगे चल कर वह उस पर अन्त तक टिका नहीं रह सकेगा ; संकट आते ही वह तुरंत उसकी साधना से आँखें फिरा लेगा। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि कोई भी समझदार आदमी तभी किसी साधना या कार्य में प्रवृत्त होता है, जब उसके सामने उस वस्तु के लाभ और उस की महत्ता के पहलू स्पष्ट हो जाते हैं । यही कारण है कि शास्त्रकार ने पहले ब्रह्मचर्य की महिमा बता कर बाद में ही उसके स्वरूप तथा उसकी रक्षा के लिए अन्यान्य बातें छेड़ी हैं। यद्यपि माहात्म्य का वर्णन मूलार्थं तथा पदान्वयार्थ से स्पष्ट है, तथापि कुछ पर विश्लेषण करना जरूरी है।
उत्तमतवनियमनाणदंसणचरित्तसम्मत्तविणयमूलं - इसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य एक ऐसा शक्ति का स्रोत है, जो तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय सभी को शक्ति प्रदान करता है। क्या तप, क्या नियम और क्या आचारविचार आदि सबके पीछे ब्रह्मचर्य का बल आवश्यक है। बिना ब्रह्मचर्य के ये सब भलीभांति सम्पन्न नहीं हो सकते ।
यहाँ एक बात का स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है कि तप, नियम आदि 'सबके साथ 'उत्तम' विशेषण का प्रयोग किया है, वह इसलिए कि कई लोग सांसारिक कामनाओं के वशीभूत हो कर या यश, प्रतिष्ठा, पद, संतान आदि इहलौकिक लाभों की दृष्टि से तप, नियम आदि को अपनाते हैं, परन्तु यहाँ वैसे तप आदि विवक्षित नहीं हैं, क्योंकि वे निकृष्ट प्रयोजन के लिए किये गए हैं ; इसलिए वे उत्तम नहीं कहे जा सकते । उत्तम तप आदि वे ही माने जाएंगे ; जो किसी सांसारिक प्रयोजन से नहीं किये जाते।
___ इस दृष्टि से उत्तम कोटि के तप, नियम आदि का मूल ब्रह्मचर्य है। क्योंकि ब्रह्मचर्य की साधना किये बिना न तो शारीरिक शक्ति ही प्राप्त होती है और न मानसिक या आध्यात्मिक शक्ति ही । शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्ति के अभाव में तप कैसे हो सकता है ? नियम कैसे पाला जा सकेगा ? और ज्ञानादि का उपार्जन भी कैसे होगा ? विनय का आचरण भी कैसे हो सकेगा ? उदाहरण के तौर पर, कोई व्यक्ति बाह्य या आभ्यन्तर किसी भी तपस्या के लिए शारीरिक शक्ति
१ 'अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तप :- अर्थात्--अनशन-(उपवासादि), ऊनोदरी, खाद्य आदि द्रव्यों की संख्या नियत करना, स्वादपरित्याग, एकान्तशय्यासन और कायक्लेश, ये ६ भेद बाह्य तप के हैं। 'प्रायश्चित विनयवैयावृत्य स्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्' अर्थात्-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये ६ आभ्यन्तर तप हैं।-तत्त्वार्थसूत्र
-संपादक