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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ७१० इसका आचरण करते हैं, यह शंका से रहित है, इसमें भय को कोई स्थान नहीं है, यह तुषरहित चावल के समान सारयुक्त वस्तु है, इसमें किसी प्रकार के खेद को अवकाश नहीं है, मालिन्य के लेप की गुंजाइश नहीं है, यह चित्त की परमशान्ति– निवृत्ति का घर है, इसका नियम अचल है, यानी अतिचारअपवाद को इसमें स्थान नहीं है, तप और संयम का यही (ब्रह्मचर्य हो) मूलहै, पांचों महाव्रत इससे सुरक्षित रहते हैं अथवा पंचमहाव्रतों में इसका रक्षण - जतन अत्यन्त आवश्यक है | यह पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से सुरक्षित है, उत्तम ध्यान रूपी कपाट से इसकी भलीभांति रक्षा की जाती है और ध्यानरूपी कपाट को सुदृढ़ करने के लिए अध्यात्म अनुभव ज्ञानरूप उपयोग की अर्गला लगाई जाती है । इसके जरिये दुर्गति का मार्ग बांधा और रोका जाता है, यह उत्तमगति का पथप्रदर्शक है, पद्मसरोवर एवं तालाब के समान शुद्ध धर्म की रक्षा के लिए यह लोकोत्तम व्रत पाल है, बड़ी गाड़ी ( महाशकट) के पहिये में लगे हुए आरों का आधार जैसे उसकी धुरी ( नाभि ) होती है वैसे ही जीवन रूपी गाड़ी के गुण रूपी आरों के आधारभूत धुरी के समान ब्रह्मचर्य है । बड़ी शाखाओं वाले धर्म रूपी महावृक्ष का यह स्कन्ध (तना ) है । धर्मरूपी महानगर के कोट के कपाटों के लिए यह लोहदंड - आगल के समान विपत्ति से रक्षा करने वाला है, रस्सी से परिवेष्टित महोत्सवध्वज इन्द्रे ध्वज के समान सुशोभित है, यह धैर्य आदि अनेक निर्मल गुणों से परिवेष्टित है । इस व्रत का भंग होने पर विनय, शील, तप आदि सब गुणसमूह मिट्टी के घड़े के समान एक दम नष्ट हो जाते हैं, दही के समान मथ जाते हैं - मर्दित हो जाते हैं, चने के समान पिस जाते हैं, बाण से बींधे हुए शरीर के समान बिध जाते हैं, महल के शिखर से गिरे हुए कलश के समान नीचे गिर जाते हैं. लकड़ी के दण्ड के समान टूट जाते हैं, कोढ़ आदि सड़े हुए शरीर के समान सड़ जाते हैं और अग्नि में जलकर भस्म हुई लकड़ी की राख के के समान अपना अस्तित्व खो बैठते हैं । इस प्रकार प्रशस्त लक्षणों से युक्त वह भगवान् ब्रह्मचर्यं ग्रहगणों, नक्षत्रों और तारों के बीच में चन्द्रमा के समान सब व्रतों के बीच में सुशोभित है । जैसे समुद्र चन्द्रकान्त आदि मणि, मोती, शिला, मूंगा और पद्मरागादि रक्त रत्नों की खान है, वैसे ही ब्रह्मचर्य भी अनेक गुणरूप रत्नों की खान है । मणियों में वैडूर्य मणि जैसे श्रेष्ठ है,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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