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________________ छठा अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर ७०६ के मैल विशेष को धारण करना, मौनव्रत रखना, केशलोच करना, क्षमा, दम, अचेलकतता-वस्त्ररहिता या अल्पजीर्ण वस्त्र धारण करना,क्षुधा और पिपासा सहन करना, लघुता धारण करना, सर्दी-गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या पर सोना, भूमि पर बैठना, भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर जाना, भिक्षा आदि के मिलने पर अभिमान तथा न मिलने पर या कम मिलने पर अपमान-दैन्य न दिखाना, निन्दा सहन करना, डांस व मच्छर के स्पर्श सहना, नियम-उत्तर गुण, तपस्या, मूलगुणादि और विनय इत्यादि में अन्तरात्मा को सम्यक् प्रकार से भावनायुक्त-संस्कारसम्पन्न बनाना चाहिए। (जहा) जिससे इन सब के योग से (यं) उस ब्रह्मचारी का (बंभचेरं) ब्रह्मचर्य ( थिरतरकं होइ) अत्यन्त स्थिर हो जाता है। (च) तथा (इम) यह (पावयणं) ब्रह्मचर्यरूप सिद्धान्त प्रवचन (भगवया) भगवान् महावीर स्वामी ने, (अबंभचेर विरमण परिरक्खणट्ठयाए) अब्रह्मचर्य से विरति एवं ब्रह्मचर्य संवर की परिरक्षा के लिए (सुकहियं) सुन्दर ढंग से कहा है; जो (पेचाभावियं) जन्मान्तर में सहायक (आगमेसिभ६) भविष्य में कल्याणकर (सुद्ध) निर्दोष, (नेआउयं) न्यायसंगत, (अकुडिलं ) कुटिलता से रहित (अणुत्तरं) श्रेष्ठ और (सव्वदुक्खपावाणं) सभी दुःखों और पापों को (विउसवणं) शान्त करने वाला है। - मूलार्थ- श्री सुधर्मास्वामी अपने प्रधान शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं—हे जम्बू ! अदत्तादान त्याग व्रत के अनन्तर ब्रह्मचर्यव्रत का वर्णन करता हैं। यह ब्रह्मचर्यव्रत उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है, अहिंसा एवं सत्यादि पंचमहाव्रतरूप यम तथा अभिग्रहादिरूप नियम के प्रधान गुणों से युक्त है । यह हिमवान पर्वत से भी महा तेजस्वी है। इसका पालन करने वाले साधकों का अन्तःकरण विशाल, उदार, गम्भीर और स्थिर हो जाता है । सरलस्वभावी साधुमहात्माओं ने इसका आचरण किया है, यह मोक्ष का मार्ग है, रागद्वेषादि से रहित विशुद्ध सिद्धिगति का आश्रय है । यह शाश्वत-नित्य, बाधारहित, पुनः उत्पत्ति न होने का कारण है, यह श्रेष्ठ है, सौम्य है, शुभ या सुख का कारण है, कल्याणकर्ता है, स्थिरता का कारण है, अक्षय-मोक्ष का कारण है, उत्तम साधुजनों ने इसकी सुरक्षा की है, यह श्रेष्ठ आचरण है, केवली मुनिवरों ने इसका सरहस्य निरूपण किया है । जाति, कुल आदि गुणों से उत्तम महापुरुषों एवं धैर्यधारियों में महासत्व पराक्रमी पुरुषों, धर्मप्राण एवं धैर्यवान् पुरुषों का ही यह व्रत सब अवस्थाओं में विशुद्ध निर्मल रहता है । यह भव्य व्रत है, समस्त भव्यजन
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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