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________________ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्यसंवर ७०७ सवार होकर राजा जैसे अपने शत्रुओं को पराजित कर देता है, वैसे ही ब्रह्मचर्य भी कर्मशत्रु की सेना को हरा देता है। (एवं) इस प्रकार (एकमि) एक (बंभचेरे) ब्रह्मचर्य के होने पर (अणेगा गुणा अहीना) अनेक गुण आत्मा के अधीन हो जाते हैं (य) तथा (जंमि आराहियंमि) जिसकी आराधना कर लेने पर (सव्वमिणं वयं आराहियं) इस सम्पूर्ण मुनिव्रत की आराधना हो जाती है (सीलं तवो विणओ य) तथा शील, तप, विनय (य) और (संजमो) संयम, (खंती गुत्ती मुत्ती) क्षान्ति, गुप्ति, और मुक्ति-निर्लोभता, (तहेव, इसी प्रकार (इहलोइय-पारलोइयजसे कित्ती य) इहलौकिक और पारलौकिक यश और कोति, (य) और (पच्चाओ) प्रत्यय-यह सज्जनों में अग्रणी है, ऐसी प्रतीति, इन सब गुणों की उपलब्धि ब्रह्मचर्य की आराधना से हो जाती है। (तम्हा, इसलिए (सत्वाओ) मन-वचन-काया से (जावज्जीवाए) जीवन पर्यन्त (जाव सेवट्ठि संजउत्ति) जब तक संयमी साधक के सफेद हड्डियाँ रहें तब तक निहुएण सुद्धं बंभचेरं चरियव्वं) साधक को निश्चल होकर शुद्ध ब्रह्मचर्यव्रत का आचरण करना चाहिए। (एवं) आगे कहे अनुसार (भगवया) भगवान् महावीर ने (वयं भणियं) ब्रह्मचर्यव्रत का स्वरूप बताया है (तं च इम) वह ब्रह्मचर्यव्रत इस प्रकार है—(पंचमहव्वयसुव्वयमूलं) यह पाँच महाव्रतों और पांच अणुव्रतों का मूल है, अथवा पंच महाव्रत रूप उत्तम व्रतों को जड़ है, या पंच महाव्रतधारी श्रमणों के उत्तम नियमों का मूल है। (समणमणाइलसाहुसुचिन्न) निर्दोष श्रमणों ने इसका अच्छी तरह निष्ठापूर्वक आचरण किया है। (वेरविरामणपज्जवसाणं) वैर की निवृत्ति करना ही इसका अन्तिम फल है। (सव्वसमुद्दमहोदधितित्थं) सब समुद्रों में महान् समुद्र-स्वयंभूरमण सागर के समान दुस्तर है, अतएव पवित्रता के कारण यह तीर्थ के तुल्य है । (तित्थकरेहि सुदेसियमग्गं) तीर्थकरों ने इसके पालन का गुप्ति आदि मार्गउपाय बताया है। (नरयतिरिच्छ विवज्जियमगं) यह नरक और तिर्यंचगति के मार्ग का निवारण करता है। (सव्वपवित्त सुनिम्मियसार) समस्त पवित्र कार्यों को यह सारवान् बनाने वाला है (सिद्धि विमाण अवंगुयदारं) जिसने सिद्धि-मोक्ष और स्वर्ग के द्वारों को खोल दिया है, (देव नरिंदनमंसिय पूर्व) यह देवेन्द्रों और नरेन्द्रों से नमस्कृत तथा गणधरादि से पूज्य है। (सध्वजगुत्तममंगलमग्गं) सारे संसार के उत्तम मंगलकार्यों का यहमार्ग रूप है । (दुद्धरिसं) दूसरों से इसका पराभव नहीं हो सकता, (एक्क) यह अद्वितीय गुण है, (गुणनायक) गुणों का नेता है अथवा गुणों को प्राप्त कराने वाला है, (मोक्खपहस्स वडिसकभूयं) सम्यग्दर्शन
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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