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________________ आठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर ६६१ इस प्रकार इस तीसरे संवरद्वार का कथन श्री भगवान महावीर ने किया है, इस प्रकार निरूपण किया है, उपदेश दिया है, यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) यह संवरद्वार प्रशस्त है। यह तीसरा संवरद्वार समाप्त हुआ, ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ। - व्याख्या साधु के लिए तीसरा महाव्रत अदत्तादान विरमण संवर है । साधु जो भी महाव्रत ग्रहण करता है, वह मन, वचन और काया से, कृत, कारित और अनुमोदित रूप से निषेधात्मक तथा विधेयात्मक दोनों रूपों से करता है। इस दृष्टि से अदत्तादान विरमण का निषेधात्मक रूप होता है-मन-वचन-काया से परद्रव्य हरण न करना, न करवाना और न करने वाले का अनुमोदन करना । इसी प्रकार विधेयात्मक रूपं होता है-अपने हिस्से की वस्तु का अपने सार्मिकों में वितरण करना,स्वेच्छा से स्वनिश्रित वस्तु का त्याग करना, निःस्वार्थ भाव से सेवा करना, सर्वस्व समर्पण करके जो भी बचीखुची चीज मिल जाय उसी में संतुष्ट रहना; अपने शरीर की भी कम से कम आवश्यकताएं रखना,यहाँ तक कि अपनी मालिकी की वस्तु भी न रखना । विधेयात्मक रूप में अचौर्य का भी मन, वचन, काया से और कृत, कारित,अनुमोदन रूप से पालन करना होता है। अचौर्य महाव्रत पर जब हम इन दोनों रूपों की दृष्टि से विचार करते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि यह महाव्रत भी अहिंसा और सत्य से कम गहन नहीं है। अतः उतनी ही कठिन है-इस व्रत की सुरक्षा भी । इसीलिए अचौर्य महाव्रत की सुरक्षा करने और सैद्धान्तिक दृष्टि से इसकी उपयोगिता समझाकर साधक के दिल दिमाग में इसका महत्त्व जमा देने के हेतु शास्त्रकार नपे-तुले शब्दों में इसकी गुण गाथा और सैद्धान्तिक महिमा प्रगट करते हैं— "इमं च परदव्वहरण वेरमण परिरक्खणट्ठयाए पावयणं........ सव्वदुक्ख पावाण विओवसमणं ।" इसका अर्थ पहले स्पष्ट कर चुके हैं। अचौर्यव्रत को पांच भावनाओं की उपयोगिता—यों देखा जाय तो अचौर्य महाव्रत ही अपने आप में पूर्ण व्यावहारिक है । अचौर्य का लक्षण हम पहले बता आए हैं। उसमें यह बता दिया गया है कि अर्थहरण के समान ही किसी के अधिकारों का, उपकारों का एवं वस्तु तथा शरीरादि के उपयोग का हरण कर लेना भी चोरी है । जब ये सब चोरी में शुमार हैं तो साधु को यह सोचना पड़ेगा कि मैं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी छोटे. या बड़े साधु के अधिकार पर तो छापा नहीं मार रहा हूँ ? वृद्ध, रोगी या अशक्त साधु को स्वस्थ एवं युवक साधु से सेवा लेने का अधिकार है। अगर वह नहीं करता है तो एक प्रकार से चोरी करता है। इसी प्रकार किसी के उपकारों को भूल जाना या कृतघ्न होकर उसकी निन्दा करना उपकार की चोरी है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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