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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र भोजन-पान आदि के प्राप्त हो जाने पर साधु को उनका इस प्रकार उपभोग करना चाहिए, जिससे सूक्ष्मरूप से जरा-सा भी अदत्तादानत्यागवत के नियम का भंग न हो। इस प्रकार साधारण पिंडपात या पिंड पात्र के लाभ के विषय में पूर्वोक्त समिति-योग से सम्यक्प्रवृत्ति के योग से संस्कारित बनी हुई साधु की अन्तरात्मा सदा दोषयुक्त अनुष्ठान के स्वयं करने व दूसरों से कराने से उत्पन्न पापजनक कर्म से विरक्त होकर दत्तानुज्ञातवस्तु का ग्रहण ही पसंद करती है।
पांचवीं साधर्मिकविनयकारण भावना है, जो इस प्रकार है-साधर्मिक साधुओं के प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए । रोगादि अवस्था में सेवा द्वारा साधु का उपकार करने में तथा तपस्या के पारणे में इच्छाकारादिरूप विनय करना चाहिए । सूत्रादि का पाठ पढ़ने में तथा पढ़े हुए पाठ की आवत्ति करने में वन्दनादिरूप विनय का आचरण करना चाहिए । भिक्षा में प्राप्त भोजनादि का अन्य साधुओं को वितरण करने में, दूसरे साधुओं द्वारा दिये गए पदार्थ को ग्रहण करने में तथा विस्मृत सूत्रार्थ के बारे में पूछने के समय वन्दनादि रूप विनय का प्रयोग करना चाहिए। अपने उपाश्रय से निकलते और प्रवेश करते समय भी आवश्यकीय एवं नैषधिकी क्रिया द्वारा विनय करना चाहिए । ये और इसी तरह के बहुत से सैकड़ों दूसरे कारणों को लेकर यथायोग्य विनय व्यवहार साधर्मिक साधुओं के साथ करना चाहिए । क्योंकि विनय भी तप है और तप भी धर्म है । इसलिए गुरुओं,साधुओं व तपस्वियों के प्रति विनय का प्रयोग करना हर्गिज नहीं भूलना चाहिए । इस प्रकार विनय के आचरण से संस्कारयुक्त बनी हुई साधु की अन्तरात्मा नित्य सावद्य आचरण स्वयं करने और दूसरों से करवाने की पापक्रियाओं से निवृत्त हो कर दत्तानुज्ञात वस्तु को ही ग्रहण करना पसन्द करती है।
इस प्रकार यह दत्तानुज्ञात नामक ततीय संवरद्वार मनवचनकाया द्वारा पांच भावना के चि तन प्रयोग से सुरक्षित होकर साधु के दिल-दिमाग में संस्काररूप से अच्छी तरह जम जाता है । तभी यह महाव्रत पूर्णतया आचरण में आता है। इस प्रकार पूर्वोक्त सूत्र पाठ में बताए अनुसार इन पांचों भावनाओं का चिन्तनप्रयोग जीवन के अन्त तक सदा करना चाहिए। यह भावनायोग समस्त जिनेन्द्रों द्वारा अनुज्ञात है, शुद्ध है, अनाश्रवरूप है, कालुष्यरहित अच्छिद्र, अपरिस्रावी एवं असंक्लिष्ट है ।