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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
उपकारी का नाम छिपाना भी इसी के अन्तर्गत है । इसी प्रकार किसी वस्तु का आवश्यकता से अधिक उपयोग, ग्रहण या उपभोग करना; या जहाँ जरूरत हों, वहाँ उस वस्तु का उपयोग न करना, इसी प्रकार सशक्त, स्वस्थ शरीर होते हुए भी उससे शास्त्रीय अध्ययन, सेवा या उपकार आदि के कार्य न करना,अपनी शक्ति को छिपाना, समाज को अपनी उर्वरा बुद्धि से स्वस्थ चिन्तन न देना, यह भी एक प्रकार से उपकार की चोरी है।
इसी प्रकार आहारादि वस्तुओं का सार्मिकों में ठीक ढंग से वितरण न करना, अपने हिस्से में ज्यादा ले लेना या अच्छी चीज ले लेना, वितरण में पक्षपात करना, किसी को वास्तविक आवश्यकता के अनुसार न देकर अन्याय करना, उसके अधिकारों का हरण करना, ये सब विभाग चोरी के प्रकार अधिकारहरणरूप चोरी के अन्तर्गत आ जाते हैं। इन सब प्रकार की चोरियों से सर्वथा मुक्त होने पर ही अचौर्य महाव्रत की पूर्णतया आराधना या साधना हो सकती है। सवाल यह होता है, पूर्वोक्त चौर्य-प्रकारों से बचने के लिए तथा इस महाव्रत की पूर्णतया सुरक्षा के लिए तथा साधक में इस महाव्रत को प्राणप्रण से पालन करने की श्रद्धा, रुचि, उत्साह, तीव्रता और दृढ़ता की लौ जीवन के अन्त तक सतत जलाए रखने के लिए कौन-सा उपाय है ? इसके उत्तर में शास्त्रकार इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए पांच भावनाएं हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं—'तस्स इमा पंच भावणाओ ततियस्स होंति परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्टयाए ...... पंचहि कारणेहि मण-वयण-कायपरिरक्खिएहि णिच्चे आमरणंतं च एस जोगो णेयव्वो।' इन पंक्तियों का अर्थ पहले स्पष्ट किया जा चुका है । तात्पर्य यही है कि ये पांच भावनाएं साधु में ऐसी स्फूति,प्रेरणा, उत्साह,रुचि, और तीव्रता के संस्कार भर देती हैं कि वह जीवन की अन्तिम घड़ी तक इस महाव्रत की रक्षा में मन-वचन-काय से प्राणप्रण से जुटा रहता है। साधुजीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का विशुद्ध और स्वावलम्बी उपाय भिक्षाचर्या बताया है; उसके बारे में शास्त्रकार ने छठे अध्ययन में उस भिक्षा-विधि के निर्दोष आचरण की विशद चर्चा की है। परन्तु इस पूर्ति के उपरान्त भी साधुजीवन में कुछ और शरीर एवं मन से सम्बन्धित आवश्यकताएँ हैं, जिनसे सर्वथा इन्कार नहीं किया जा सकता । नीचे हम उसका संक्षिप्त दिग्दर्शन करा रहे हैं-आहार वस्त्रादि के बाद साधु की आवश्यकता निवास स्थान की है। प्राचीनकाल में लोग साधुओं को गुप्तचर समझते थे या अपने सम्प्रदाय से भिन्न सम्प्रदाय का देखकर उससे घृणा, द्वेष, वैर-विरोध आदि करते थे। कई बार ठहरने के लिए स्थान नहीं देते थे । और दूसरी समस्या साधु के सामने यह भी रहती है कि उसे अपने रहने के लिए उसी स्थान को खोजना होता है,जिसमें किसी प्रकार का आरम्भसमारम्भ अंदर बाहर न होता हो, या