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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
हास्यमुक्ति और वचनसंयमरूप चिन्तन के संस्कार जब अन्तरात्मा में बद्धमूल हो जायेंगे तो उस संयमी आत्मा के हाथ-पैर हास्य के लिए कोई चेष्टा नहीं करेंगे, उसके नेत्र हास्यवर्द्धक क्रिया नहीं करेंगे, उसका मुह हास्यकारक वचन के लिए नहीं खुलेगा । वह सत्यवीर साधक सत्यता और सरलता से सम्पन्न हो कर अपने साधु जीवन को सार्थक कर लेगा।
पंचभावनाओं से आत्मा को सुसंस्कृत करने का निर्देश-शास्त्रकार सत्य के पूर्ण परिपालन के लिए पूर्वोक्त पांचों भावनाओं के प्रकाश में अपने मन, वचन और काया को चारों ओर से सुरक्षित रखने पर जोर दे रहे हैं । उनका कहना है कि इन पांचों भावनाओं के प्रकाश में मन-वचन-काया को सुरक्षित रखने से यह सत्यसंवरद्वार सम्यकप से संस्कारों में परिनिष्ठित और आचरित हो जाता है। सत्यार्थी धृतिमान् व बुद्धिमान् साधक को इन पांचभावनाओं का चिन्तनपूर्वक प्रयोग, जो कि कर्म के आगमन को रोकने वाला, कर्मप्रवाह के ' प्रवेश के लिए निश्छिद्र, पवित्र, असंक्लिष्ट, और समस्त जिनवरों द्वारा अनुज्ञात है ; जीवन के अन्त तक सतत करना चाहिए। ऐसा करने से ही सत्यसंवर का भलीभाँति आचरण, पालन, शोधन, पारण, कीर्तन, अनुपालन और आज्ञाराधन होता है ।
उपसंहार—यह सारा वक्तव्य शास्त्रकार ने अपनी बुद्धि से कल्पना करके नहीं दिया है, चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर ने इसका सामान्य-विशेषरूप से निरूपण किया है, इसे सर्वप्रमाणों से सिद्ध किया है, सिद्ध भगवन्तों के शासनरूप इस प्रवचन का उन्होंने भलीभाँति उपदेश दिया है, इसे मंगलमय बताया है । इसका सम्यक् पालन करने से मोक्षपद प्राप्त होता है।
इस प्रकार सुबोधिनी व्याख्यासहित श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र के सप्तम अध्ययन के रूप में द्वितीय संवरद्वार समाप्त हुआ।