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________________ ६६२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र हास्यमुक्ति और वचनसंयमरूप चिन्तन के संस्कार जब अन्तरात्मा में बद्धमूल हो जायेंगे तो उस संयमी आत्मा के हाथ-पैर हास्य के लिए कोई चेष्टा नहीं करेंगे, उसके नेत्र हास्यवर्द्धक क्रिया नहीं करेंगे, उसका मुह हास्यकारक वचन के लिए नहीं खुलेगा । वह सत्यवीर साधक सत्यता और सरलता से सम्पन्न हो कर अपने साधु जीवन को सार्थक कर लेगा। पंचभावनाओं से आत्मा को सुसंस्कृत करने का निर्देश-शास्त्रकार सत्य के पूर्ण परिपालन के लिए पूर्वोक्त पांचों भावनाओं के प्रकाश में अपने मन, वचन और काया को चारों ओर से सुरक्षित रखने पर जोर दे रहे हैं । उनका कहना है कि इन पांचों भावनाओं के प्रकाश में मन-वचन-काया को सुरक्षित रखने से यह सत्यसंवरद्वार सम्यकप से संस्कारों में परिनिष्ठित और आचरित हो जाता है। सत्यार्थी धृतिमान् व बुद्धिमान् साधक को इन पांचभावनाओं का चिन्तनपूर्वक प्रयोग, जो कि कर्म के आगमन को रोकने वाला, कर्मप्रवाह के ' प्रवेश के लिए निश्छिद्र, पवित्र, असंक्लिष्ट, और समस्त जिनवरों द्वारा अनुज्ञात है ; जीवन के अन्त तक सतत करना चाहिए। ऐसा करने से ही सत्यसंवर का भलीभाँति आचरण, पालन, शोधन, पारण, कीर्तन, अनुपालन और आज्ञाराधन होता है । उपसंहार—यह सारा वक्तव्य शास्त्रकार ने अपनी बुद्धि से कल्पना करके नहीं दिया है, चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर ने इसका सामान्य-विशेषरूप से निरूपण किया है, इसे सर्वप्रमाणों से सिद्ध किया है, सिद्ध भगवन्तों के शासनरूप इस प्रवचन का उन्होंने भलीभाँति उपदेश दिया है, इसे मंगलमय बताया है । इसका सम्यक् पालन करने से मोक्षपद प्राप्त होता है। इस प्रकार सुबोधिनी व्याख्यासहित श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र के सप्तम अध्ययन के रूप में द्वितीय संवरद्वार समाप्त हुआ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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