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________________ सातवां अध्ययन : सत्य-संवर होता है, तब वह इस प्रकार के सत्याचरण को भी ताक में रख देता है। इसलिए शास्त्रकार कहते-... अलियाई असंतकाई जति हासइत्ता " तम्हा हासं न सेवियन्वं ।' इसका आशय यह है कि वह हास्य,जिससे रागद्वेष पैदा होता है, वह परपीड़ाजनक होता है, दूसरों की मजाक करते रहने से लोग उस साधक से खीज जाते हैं और उसका भी अपमान कर बैठते हैं। कभी-कभी तो हंसी-मजाक से भयंकर लड़ाई हो जाती है, क्षणभर में पुरानी गाढ़ मैत्री खत्म हो जाती है। एक दूसरे के खून के प्यासे बन जाते हैं। कभी-कभी साधक मजाक-मजाक में ही आपस में फूट डाल देता है, उसके साधु-समुदाय के स्वजन भी उसके मजाकिये स्वभाव के कारण असंतुष्ट हो कर उससे किनाराकसी करने लगते हैं । कभी-कभी हास्य मर्मोद्घाटन करने वाला होने के कारण परस्पर वैरविरोध पैदा कर देता है। ऐसे हास्य के कारण असत्याचरण को बढ़ावा मिलता है । तथा इस प्रकार के हास्य का कटुफल भी उसे भोगना पड़ता है। यद्यपि संयम साधना के कारण वह देवगति का अधिकारी हो जाता है, लेकिन संयमी साधना में हास्यविकार के कारण उसे नीच देवयोनि मिलती है । यानी निरंतर हंसी-मजाक करने वाले भांडसरीखे साधु उस अनर्थ के कारण कांदर्पिकदेवों एवं आभियोग्य देवों में उत्पन्न होते हैं, अथवा ये असुरजाति के व किल्विषिक देवों में पैदा होते हैं, वहाँ उन्हें नीच काम करना पड़ता है। वे वहाँ तिरस्कार के पात्र बनते हैं । कहा भी है 'जो संजओ वि एयासु अप्पसत्थासु वट्टइ कहिंचि । • सो तविहेसु गच्छइ नियमा भइओ चरणविहीणो ॥' भावार्थ-"जो साधु हो कर अनर्थकारक, लोकनिन्द्य एवं चारित्र में बाधक हंसी-मजाक आदि क्रियाओं में ज़रा-सी भी प्रवृत्ति करता है, वह चारित्र से भ्रष्ट हो कर आभियोग्य, कान्दर्पिक या आसुर-किल्विष आदि नीच देवों में निश्चय ही जन्म लेता है । यदि उस समय आयुबन्ध करता है तो भांड आदि अधम मनुष्यों में भी उत्पन्न होता है।" इन सब दुष्परिणामों एवं अनिष्ट कारणों को देखते हुए सत्यमहाव्रती या सत्याणुव्रती साधक को हास्य का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। ___ साधु को इस प्रकार का चिन्तन करना चाहिए कि "हास्य संसारवर्द्धक और चारित्रनाशक चेष्टा है। इससे मेरी आत्मा को कोई लाभ नहीं है ; बल्कि इतने शुद्ध संयमपालन के साथ-साथ हास्यक्रिया करना दूध के लोटे में एक बूद जहर डालने के समान है । मैं हास्य के वश हो कर क्यों अपने सत्य और संयम को दूषित करूं ! यह तो घाटे का सौदा होगा कि मैं इतना कठोर चारित्रपालन करके भी हास्यक्रिया करके उसे सस्ती प्रतिष्ठा या प्रशंसा के भ्रम से खो दू।" इस प्रकार
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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