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________________ - श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र का? कोई भी बाह्य पदार्थ मेरा जरा भी नुकसान नहीं कर सकते, तब मैं किस से भय करूं ? यदि मैं अकारण ही मन में काल्पनिक भय पैदा करके डरता रहूं तो मिथ्यादृष्टि में और मुझ में क्या अन्तर रहा ? मैंने जैनशास्त्रों का अध्ययन-मनन किया, वह सब व्यर्थ हुआ ! भय के कारण मैं अपनी मानसिक-भावहिंसा क्यों करू ? यदि मैं भय करूंगा तो मुझे असत्य का सहारा लेना पड़ेगा, आत्मिक दुर्बलता के कारण पदार्थों के मालिकों की गुलामी करनी पड़ेगी या उनसे आशा या अपेक्षा रखनी पड़ेगी । अतः हिंसा, असत्य आदि पापों के परिणामों से बचना हो तो मुझे निर्भयता धारण करनी चाहिए। जो भयभीत होता है, उस पर अनेकों भय आ कर सवार हो जाते हैं । यदि मैं किसी से भय करूंगा तो चारों ओर से दबाया, सताया जाऊंगा। ज्ञानादि मित्र मेरी कोई सहायता नहीं करेंगे, मेरा. संयमरत्न लुट जायगा। क्योंकि जो भयभीत या डरपोक होता है, वह तप और संयम को भी भय से घबरा कर छोड़ देता है। भीरु साधक संयम के या महान कार्य के भार को वहन नहीं कर सकता। वह सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग का अन्त तक अनुसरण नहीं करता । अतः मुझे पापकर्म के सिवा और किसी का भी भय नहीं करना चाहिए । इस प्रकार भयमुक्तिरूप निर्भयताभावना का धैर्यपूर्वक चिन्तन-मनन एवं ध्यान करने से और तदनुसार दृढ़तापूर्वक आचरण से अन्तरात्मा निर्भयता के संस्कारों से ओतप्रोत हो जाती है। फिर तो उस सुसाधु का संयम इतना बढ़ जाता है कि स्वप्न में उसके हाथपैर भय से नहीं कांपते, उसकी आँखें भय के मारे चौंधियाती नहीं, न बंद होती हैं, और न उसका मुह भय के मारे असत्य बोलने के लिए खुलता है । और तब यह सत्यवीर सत्यता और सरलता की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। हास्यमुक्ति वचनसंयमरूप भावना का चिन्तन और प्रयोग-सत्यमहावत और सत्य-अणुव्रत दोनों के लिए हास्य बाधक है । हास्य के वशीभूत हो कर साधक कई बार मजाक में, बात-बात में झूठ बोल देता है, अतिशयोक्ति कर बैठता है। हंसी-मजाक में कई बार वह यह भूल जाता है कि इससे दूसरों को—जिनकी हंसी उड़ा रहा हूं, उनको-कितनी पीड़ा होगी? कई बार वह विदूषक की तरह भांडकुचेष्टा भी कर बैठता है. उस समय वह यही सोचता है कि 'इससे लोग मेरी ओर ज्यादा आकर्षित होंगे, लोग मुझे चाहेंगे और मैं उनसे कुछ मनोज्ञ पदार्थों को भी प्राप्त कर लूगा।' पर इसकी यह धारणा भ्रान्तिजनक सिद्ध होती है, वह हास्य के आवेश में अपनी मर्यादाओं को भी ताक में रख देता है, कामचेष्टादि भी कर बैठता है, जो कि संयम के विपरीत है। मन-वचन-काया से असंयम का आचरण करना भी भगवदाज्ञा के विपरीत होने से असत्याचरण के समान है। इसलिए परस्पर हास्य
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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