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________________ सातवां अध्ययन : सत्य-संवर ६५७ अपनी मर्यादा की प्रतिज्ञा को ताक में रख देता है और लोभ पिशाच की प्रेरणा के अनुसार झटपट असत्य के संगी-साथी छल, कपट, झूठ, फरेब, बेईमानी, अन्याय, अत्याचार आदि का सहारा ले कर उन क्षेत्रादि को प्राप्त करने या प्राप्त क्षेत्रादि की वृद्धि करने में जुट जाता है । कई बार वह अपने नाम से उनकी प्राप्ति और वृद्धि में न लग कर अपने लड़के, दामाद, भानजे और भतीजे आदि के नाम से उक्त परिग्रह जुटाता है । इस प्रकार वह स्व-पर-वंचना करता है, जो असत्य की ही बहिन है। क्षेत्र और वास्तु इन दो पदों के द्वारा शास्त्रकार ने शेष आठ प्रकार के परिग्रहों (जो गृहस्थ के परिग्रहपरिमाण के अन्तर्गत हैं) को भी उपलक्षण से सूचित कर दिया है। ___ कीति का लोभ तथा परिवार के पोषण का लोभ गृहस्थों को तो क्या, बड़े-बड़े साधुओं को भी हैरान कर डालता है । गृहस्थ का अपना परिवार होता है,वैसे ही साधु का भी अपना शिष्य-शिष्याओं का परिवार होता है, और वह भी अपने शिष्यशिष्या-परिवार के पोषण के लिए नानाविध वस्तुओं को जुटाने के लोभ में असत्य का सेवन कर लेता है। अपनी कीर्ति के लोभ में आकर भरतचक्रवर्ती ने जैसे अपने प्रियभ्राता बाहुबलि को मारने के लिए चक्र चलाया था, वैसे ही गृहस्थ अपनी कीर्ति बढ़ाने के लोभ में झूठफरेब का सहारा ले कर मंत्री आदि पद, सत्ता या अन्य कोई ओहदा प्राप्त करता है। कीर्ति का चस्का लगने पर वे साधु भी सत्ताधारियों और धनाढ्यों से मिलने और अपने नाम का प्रचार करने के लिए तिकड़मबाजी करते हैं । इसी प्रकार ऋद्धि -वैभव या सत्ता की प्राप्ति के या सुख-साधनों के लोभ के वशीभूत हो कर भी साधक सत्य से डिग जाता है। इसलिए सत्यार्थी साधक के लिए शास्त्रकार का दिशानिर्देश है कि जब भी क्षेत्र, मकान, कीर्ति, परिवारपोषण, ऋद्धि, सत्ता, इन्द्रिय सुख या वस्त्र पात्र, शिष्य-शिष्या आदि का लोभ सताने लगे, तब वह इस भावना के प्रकाश में चिन्तन करे कि जिन पर मैं लुब्ध हो रहा है, या जिनके लोभ का ज्वार मेरे में उमड़ रहा है, ये सब वस्तुएँ क्षणिक हैं, नाशवान हैं, सत्य से डिगाने वाली हैं, मनुष्य को अपने संयम के रास्ते से भटकाने वाली हैं, चिंता के चक्कर में डाल कर तंग करने वाली हैं । आत्मसम्पत्ति ही वास्तविक सम्पत्ति है, आत्मा में रमण करने में ही वास्तविक सुख है, सत्य का आचरण करने में ही जीवन की सफलता है। जब आत्मा में सत्य का सागर उमड़ने लगेगा, सत्य पालन की तीव्रता जागेगी, तब पदार्थों के प्रति स्वयमेव विरक्ति हो जायगी, लोभ कपूर के समान उड़ जायगा । वस्त्र, पात्र, औषधि, शिष्य, शिष्या, दंड, कंबल, उपाश्रय, शय्या, संस्तारक आदि अन्त तक उपकारक नहीं हैं, ये तो सिर्फ औषधि के समान हैं। ४२
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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