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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
मनुष्य औषधि का सहारा तभी तक लेता है, जब तक उसके शरीर में रोग रहता है । ये सब उपकरण वास्तव में अशक्त आत्मा को संयम-पालन करने में सहायता देने वाले हैं । जब आत्मा जिनकल्पी के समान सबल हो जाती है, तब इन उपकरणों का भी त्याग करके पूर्ण शान्ति का अनुभव करती है। इसलिए ' इनका लोभ न करना ही सत्यव्रती के लिए श्रेयस्कर है।
इसी प्रकार की निर्लोभता-भावना का पुनः पुनः चिन्तन-मनन करने से और तदनुसार लोभवृत्ति को कम करते रहने से आत्मा में निर्लोभवृत्ति के संस्कार सुदृढ़ हो जायेंगे और तब ऐसे संयमो अन्तरात्मा के हाथ लुभायमान करने वाली वस्तुओं को लेने के लिए नहीं बढ़ेंगे, पैर उन मनोज्ञ पदार्थों को ग्रहण करने के लिए चंचल व गतिशील नहीं बनेंगे, आँखें उन पदार्थों को देखने के लिए उत्सुकतापूर्वक ऊपर नहीं उठेगी, और न मुह ही उन पदार्थों की मांग के लिए खुलेगा। वह सत्यवीर सुसाधु सत्य का पूर्ण उपासक हो कर मोक्षनिधि को प्राप्त कर लेता है।
भयमुक्तिरूप धैर्ययुक्तनिर्भयताभावना का चिन्तन और प्रयोग- सत्य की पूर्ण उपलब्धि या साधना के लिए लोभ के बाद भय बहुत बड़ा बाधक तत्त्व है । लोभ साधक के जीवन में मीठा ठग बन कर आता है, और चुपके-चुपके साधक के जीवन में घुस जाता है ; जबकि भय कड़वा बन कर साधक को आतंकित करता हुआ, तथा उसके प्राण, प्रतिष्ठा और परिगृहीत वस्तुओं के अस्तित्व को चुनौती देता हुआ आता है । इसलिए लोभ मधुर शत्रु है और भय कठोर शत्रु है । परन्तु साधक के लिए क्या कोमल,क्या कठोर दोनों प्रकार के शत्रुओं से जूझना है । जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं और साधक के सामने ऐसा इहलौकिक भय उपस्थित हो जाता है कि इस संसार में मेरा कौन है ? अथवा मेरा क्या होगा ? मेरे पास कौन होगा ? मेरे पास साधन नहीं होंगे तो क्या करूँगा? कभी अपनी साधना पर अविश्वास के कारण या शास्त्रों की आध्यात्मिक बातों पर शंका के कारण यह पारलौकिक भय उसके सामने आकर खड़ा होता है कि इतनी कष्टकर साधना के बाद भी परलोक में कुछ भी सुख न मिला तो ? ये स्वर्ग-मोक्ष की बातें कोरी गप्पें निकली तो मेरा वहाँ क्या होगा? मरने के बाद पता नहीं मुझे सुख मिलेगा या दु:ख ? इसी प्रकार कभी-कभी उसके मन में अपनी या अपनी माने जाने वाली वस्तु की सुरक्षा का भय सवार हो जाता है । उसी भय के मारे व्याकुल हो कर वह संयम छोड़ने को तैयार हो जाता है। कभी-कभी उसके मन में काल्पनिक भीति पैदा हो जाती है कि मुझ पर अकस्मात् यह वृक्ष टूट पड़ा तो ? यह मकान ढह पड़ा तो? मेरी टांग टूट गई तो? अचानक कोई दुर्घटना हो गई और अंगभंग हो गया तो ? ये आकस्मिक भय भी साधक को बहुत सताते हैं। किसी समय अपनी जीविका–भोजन,