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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र मानित होता है, उसके साथ लोगों का वैरविरोध बढ़ता जाता है। इसलिए क्रोध हगिज नहीं करना चाहिए । इस प्रकार दूसरी भावना में क्रोधनिग्रह करके क्षमाभाव -क्षान्ति-सहिष्णुता रखने का निर्देश किया है। क्रोध से सर्वतोमुखी हानि और क्षमा-सहिष्णुता से सत्य के पालक उत्तम लाभ का चित्र सत्यार्थी साधक के मनमस्तिष्क में अंकित हो जाना चाहिए। इसी बात को शास्त्रकार स्पष्ट द्योतित करते हैं-'कोहो न सेवियव्वो एवं खंतीए भाविओ भवति ।' इसी का भावार्थ ऊपर स्पष्ट किया गया है।
लोभविजयरूप निर्लोभतासमिति का चिन्तन और प्रयोग-क्रोध के बाद सत्यमहाव्रत के पालन में बाधक लोभ है । लोभवृत्ति से मनुष्य का चित्त चंचल हो उठता है। किसी भी पदार्थ का लोभ दिमाग में सवार होते ही वह येन-केन-प्रकारेण उसकी पूर्ति के लिए उतारू हो जाता है। उस समय वह सत्य को भी ताक में रख देता है, अपने श्रावकत्व और साधुत्व की मर्यादाओं को भी भूल जाता है, परिग्रह की सीमा
और अपरिग्रहवृत्ति को भी ओझल कर देता है। उसका चित्त लोभवृत्ति के कारण सत्यव्रत से विचलित हो जाता है, उसकी वाणी लुब्धता के कारण सत्यवचन से हट जाती है,उसकी शारीरिक चेष्टाएँ भी लोभ सवार होने पर सत्यप्रवृत्ति से डगमगा जाती हैं । और वह चाहे सीमितपरिग्रही गृहस्थ श्रावक हो या अपरिग्रहवृत्ति महाव्रती साधु हो, लोभग्रस्त होने पर खेत, जमीन, मकान, सुख के साधन, खानपान, चौकी, पट्टा, शय्या-निवास योग्य बस्ती, बिछौना, कपड़े, पात्र, कंबल या पैर पोंछने के कपड़े, शिष्य या शिष्या, ये और इस प्रकार की हजारों चीजों के निमित्त मन, वचनं और काया से असत्य का सहारा लेता है, दूसरों से असत्य आचरण कराता है और असत्याचरण करके इन सब साधनों को जुटाने वाले लोगों का अनुमोदन भी करता है। जब सत्यवती साधक इस प्रकार करता है तो उसकी सत्य की साधना धूल में मिल जाती है । इसलिए असत्य में बलात् प्रवृत्त करने और अन्तर् वृत्ति को लुभायमान करके असत्य वचन की ओर मोड़ने वाले लोभ से सत्यमहाव्रत या सत्य-अणुव्रत की रक्षा के लिए शास्त्रकार ने इस भावना के चिन्तन-मनन और तदनुसार मनोयोगपूर्वक प्रवृत्त होने का निर्देश निम्नोक्त सूत्रपंक्तियों द्वारा किया है-- 'लोभो न सेवियम्वो, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं..." व कएण न सेवियन्वो।' इसका आशय यह है कि पूर्णसत्य की प्रतिज्ञा वाले महाव्रती और स्थूलसत्यव्रत धारण करने वाले अणुव्रती श्रावक लोभ के वशीभूत हो कर अपनी सत्यप्रतिज्ञा से गिर जाते हैं । गृहस्थ श्रावक पर जब लोभ सवार होता है तो वह खेत, बाग,जमीन, मकान, सोना, चांदी, धन, धान्य, दासी-दास, लोहा, तांबा आदि अन्य (कुप्य; धातु, नौर बर्तन आदि घर का सामान ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने पर आमादा हो जाता है । वह क्षेत्रादि दस प्रकार के परिग्रह की की हुई