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सातवां अध्ययन : सत्य-संवर
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वचनों से पापकार्यों का पोषण होता हो, ऐसे वचन सावद्य कहलाते हैं । जैसे किसी को चोरी, जारी, वेश्यागमन, मद्यपान आदि निन्द्यकर्मों की सलाह देना, उनमें प्रोत्साहित करना सावद्य है ।
सावद्यवचन तो हर्गिज भी नहीं बोलना चाहिए । पूर्वोक्त दोषों से रहित शुद्धनिर्दोष, सत्य, हितकर, परिमित, ग्रहणीय, स्पष्ट, पूर्वापरसंगत एवं बोलने से पहले भलीभांति सोचा- विचारा हुआ वचन अवसर पर बोलना चाहिए।
यह अनुचिन्त्य भाषासमितिभावना का आशय है । इसे भलीभांति हृदयंगम करके चिन्तन-मननपूर्वक वाणीप्रयोग करना ही सत्यार्थी के लिए प्रथम भावना का उद्देश्य है |
क्रोधनिग्रहरूप क्षमाभावना का चिन्तन और प्रयोग - पहली भावना में बार-बार चिन्तन और पर्यालोचन करने के बाद अमुक प्रकार से बोलने और अमुक प्रकार से न बोलने का निर्देश किया, इसी पर से यह प्रश्न उठता है कि मनुष्य जब बोलता है तो उतावल में झुंझला कर, चपलता से, कठोर, कटु, परपीड़ाकारी सावद्य वचन सहसा वयों बोल देता है ? वह उस समय अपनी जबान पर लगाम क्यों नही रख पाता ? इसी के उत्तर में शास्त्रकार दूसरी भावना का चिन्तन और प्रयोग बताते हैं । उनका आशय यह है कि सहसा बिना विचारे बोलने के पीछे क्रोध भी एक जबर्दस्त कारण है । जब मनुष्य पर क्रोध का भूत सवार होता है तो उसे अपने आप का भान नहीं रहता । वह क्या बोल रहा है ?, क्या चेष्टा कर रहा है ? किससे क्या कहना चाहिए, और क्या नहीं ? इसका ज्ञान उसे क्रोधावेश में नहीं रहता । क्रोध के वश मनुष्य झुंझला कर बोलता है, जल्दी जल्दी भी बोलता है, चंचलतापूर्वक बात कहता है, कड़वा और कठोर वचन भी कह डालता है, बिना विचारे किसी पर सहसा दोषारोपण भी कर डालता है, परपीड़ाकारी वचन और मारो-पीटो आदि सावद्य वचन तो कोपकांड के समय प्रगट होते ही हैं । क्रोधी मनुष्य परनिन्दा, गालीगलौज, मारपीट, हाथापाई और मुकद्दमेबाजी पर भी उतर आता है । क्रोधी मनुष्य अपने माता-पिता व गुरुजनों का विनय करना भूल जाता है, अपनी मां-बहनों की इज्जत का भी उसे भान नहीं रहता । क्रोध के वशीभूत हुआ मनुष्य अपनी आत्मा में तो अशान्ति उत्पन्न करता ही है, अपनी समाधि ( शील) का भंग तो कर ही बैठता है, अपने परिवार, समाज और देश में भी वह भयंकर अशान्ति मचा देता है । कई बार क्रोधी नेता अपने क्रोधावेश में आ कर ऐसे वचन बोल देता है, जिससे सारा समाज या देश विनाश के मुंह में चला जाता है, उसके क्रोध का शिकार सारे देश या समाज को होना पड़ता है । इसलिए क्रोधी मनुष्य सब का अकारण शत्रु बन जाता है; हिंसा, अन्याय, अत्याचार आदि कई दोषों का घर बन जाता है; पद-पद
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झूठ . धोखा,
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