SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव २५ जितनी भी प्रवृत्तियाँ होती हैं, वे सब की सब हिंसामयी हैं। अन्याय और प्राणवध दोनों का चोली-दामन-सा अविनाभाव सम्बन्ध है। किसी को भी किसी प्राणी के प्राण लेने या सताने का अधिकार नहीं है, इसलिए अधिकारबाह्य कर्म होने के कारण अथवा मानवता, दया, 'जीओ और जीने दो' की भावना आदि न्यायमार्ग के विरुद्ध होने के कारण इसे अन्याय्य-अन्याययुक्त कहा है। ___ उद्वे जनक-जिस समय प्राणी का वध किया जाता है, उस समय उसके चित्त में क्षोभ पैदा होता है, उसका रोम-रोम काँप उठता है, सारा शरीर सामना करने के लिए चंचल हो उठता है, इसलिए इसे उद्वे जनक-उद्वेगजनक कहा है। निरपेक्ष प्राणिवध करने में वधकर्ता को परलोक या दूसरे के प्राण की अपेक्षा–परवाह नहीं रहती, वह समाज और राष्ट्र की भी तथा नीति-नियमों की भी अवहेलना कर देता है; इसलिए इसे निरपेक्ष ठीक ही कहा है। निर्धर्म-इस क्रिया में श्रुत और चारित्ररूप धर्म अथवा समाज को धारण पोषण करने वाली धर्ममर्यादा का सर्वथा अभाव है। दुर्गति में गिरने से बचाने की क्षमता धर्म में होती है, वह इसमें नहीं है, इसलिए इसे निर्धर्म-धर्मविहीन कहा है। निष्पिपास-प्रेमरूप पिपासा से चित्त शून्य होने पर ही प्राणिवध किया जाता है । इसके अतिरिक्त प्राणिवध करने से कर्ती की स्वार्थ-पिपासा किसी तरह भी शान्त नहीं होती, इस कारण इसे 'निष्पिपास' कहा है। निष्करुण--इस कृत्य में करुणा का नामोनिशान भी नहीं होता, इसलिए इसे निष्करुण कहा है। निरयवासगमननिधन-प्राणवध का अन्तिम परिणाम नरक का अतिथि बन कर वहाँ चिरकाल तक अवर्णनीय दुःखों का अनुभव करना है, इसलिए कार्य-कारण भाव को लेकर प्राणवध को 'निरयवासगमननिधन' कहा है। मोहमहाभय प्रवर्तक (प्रवर्द्ध क)—इस दुष्कर्म के करने से मोह-मोहनीयकर्म के महाभय में जीव प्रवृत्त होता है या मूढ़ता और महाभय को यह दुष्कर्म बढ़ावा देता है । मतलब यह है, कि इस दुष्कर्म को करने वाले तामसिक जीव के जीवन में अनेक जन्मों तक मूढ़ता छाई रहती है। उसे मोह-मूढ़तावश सन्मार्ग नहीं मिलता, दीर्घकाल तक मोहकर्मवश जन्म-मरण करके अनेक गतियों में चक्कर काटना पड़ता है। यह दुष्कर्म जन्ममरणरूप महाभय को बढ़ाता है और बारबार मोहमूढ़ता में वह प्रवृत्त भी होता रहता है, इसी कारण इसे मोहमहाभयप्रवर्तक (प्रवर्द्धक) कहा है। मरणवैमनस्य—मृत्यु के समय प्राणिवध मनुष्य को दीन बना देता है। वह मारने वाले से गिड़गिड़ाकर उसके पैरों में पड़ कर प्राणों की भीख मांगता है। इसलिए मृत्यु के समय विमना (दीन) बना देने वाला होने से अथवा मृत्यु के समय
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy